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________________ १४] हिन्दी-सार चाहिये । रूढिमें क्रिया गौण हो जाती है जैसे 'गच्छतीति गौः-जो चले सो गौ' यहाँ बैठी हुई गौमें भी गौ व्यवहार हो जाता है क्योंकि कभी तो वह चलती थी, उसी तरह कभी तो सिद्धोंने द्रव्य प्राणोंको धारण किया था। अतः रूढिवश उनमें जीव व्यवहार होता रहता है। ऊपर कहा गया जीवन जिनमें न पाया जाय वे अजीव हैं। जिनसे कर्म आवें वह और कर्मोंका आना आस्रव है। जिनसे कर्म बंधे वह और कर्मोंका बँधना बंध है। जिनसे कर्म रुकें वह और कर्मोंका रुकना संवर है। जिनसे कर्म झड़ें वह और कर्मोंका झड़ना निर्जरा है । जिनसे कर्मोंका समूल उच्छेद हो वह और कर्मोका पूर्णरूपसे छूटना मोक्ष है। १४ जीव चेतना स्वरूप है। चेतना ज्ञानदर्शन रूप होती है। इसीके कारण जीव अन्य द्रव्योंसे व्यावृत्त होता है। १५ जिसमें चेतना न पाई जाय वह अजीव है। भावकी तरह अभाव भी वस्तुका ही धर्म होता है जैसे कि विपक्षाभाव हेतुका स्वरूप होता है। यदि अभावको वस्तुका धर्म न माना जाय तो सर्वसांकर्य हो जायगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तुमें स्वभिन्न पदार्थोंका अभाव होता ही है। प्रश्न-वनस्पति आदिमें बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती अतः उनमें जीव नहीं मानना चाहिए। कहा भी है-“अपने शरीरमें बुद्धिपूर्वक क्रिया बुद्धिके रहते ही देखी जाती है, वैसी क्रिया यदि अन्यत्र हो तो वहाँ भी बुद्धिका सद्भाव मानना चाहिए, अन्यथा नहीं।" उत्तर-वनस्पति आदिमें भी ज्ञानादिका सद्भाव है। इसको सर्वज्ञ तो अपने प्रत्यक्ष ज्ञानसे जानते हैं और हम लोग आगमसे । खाद पानीके मिलनेपर पुष्टि और न मिलनेपर म्लानता देखकर उनमें चैतन्यका अनुमान भी होता है । गर्भस्थजीव, मूच्छित और अंडस्थ जीवमें बुद्धिपूर्वक स्थूल क्रिया भी नहीं दिखाई देती, अतः न दिखने मात्रसे अभाव नहीं किया जा सकता। १६ पुण्य और पापरूप कर्मोंके आगमनके द्वारको आस्रव कहते हैं। जैसे नदियों के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जलसे भरा जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शन आदि स्रोतोंसे आत्मामें कर्म आते रहते हैं। अतः मिथ्यादर्शनादि आस्रव हैं। १७ मिथ्यादर्शनादि द्वारोंसे आए हुए कर्मपुद्गलोंका आत्मप्रदेशोंमें एकक्षेत्रावगाह हो जाना बंध है। जैसे बेड़ी आदिसे बँधा हुआ प्राणी परतन्त्र हो जाता है और इच्छानुसार देशादिमें नहीं जा आ सकता उसी प्रकार कर्मबद्ध आत्मा परतन्त्र होकर अपना इष्ट विकास नहीं कर पाता। अनेक प्रकारके शारीर और मानस दुःखोंसे दुःखी होता है। १८ मिथ्यादर्शनादि आस्रव द्वारोंके निरोधको संवर कहते हैं। जैसे जिस नगरके द्वार अच्छी तरह बन्द हों वह नगर शत्रुओंको अगम्य होता है उसी तरह गुप्ति समिति धर्म आदिसे सुसंवृत आत्मा कर्मशत्रुओंके लिए अगम्य होता है। १९ तप विशेषसे संचित कर्मोंका क्रमश: अंशरूपसे झड़ जाना निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र या औषधि आदिसे निःशक्ति किया हुआ विष दोष उत्पन्न नहीं करता उसी प्रकार तप आदिसे नीरस किए गये और निःशक्ति हुए कर्म संसारचक्रको नहीं चला सकते। ६२० सम्यग्दर्शनादि कारणोंसे संपूर्ण कर्मोंका आत्यन्तिक मूलोच्छेद होना मोक्ष है। जिस प्रकार बन्धनयुक्त प्राणी स्वतन्त्र होकर यथेच्छ गमन करता है उसी तरह कर्मबन्धन-मुक्त आत्मा स्वाधीन हो अपने अनन्त ज्ञानदर्शन सुख आदिका अनुभव करता है।। १२१-२७ समस्त मोक्षमार्गोपदेशादि प्रयत्न जीवके ही लिए किए जाते हैं अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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