SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८० तत्त्वार्थवार्तिक [१४ १ संक्षेप और विस्तारसे पदार्थोके एकसे लेकर अनन्त तक विभाग किए जा सकते हैं। यथा एक ही पदार्थ अनन्तपर्यायवाला है। जीव और अजीवके भेदसे दो पदार्थ हैं। अर्थ शब्द और ज्ञान रूपसे तीन पदार्थ हैं। इसी तरह शब्दोंके प्रयोगकी अपेक्षा संख्यात और ज्ञानके ज्ञेयकी अपेक्षा असंख्यात और अनन्त भेद हो सकते हैं। यदि अत्यन्त संक्षेपसे कथन किया जाय तो विद्वज्जनोंको ही प्रतीति हो सकेगी और अतिविस्तारसे निरूपण किया जाय तो चिरकाल तक भी प्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी, अतः शिष्यके आशयानुसार मध्यमक्रमसे सात तस्वरूप विभाजन किया है । २-५ प्रश्न-आस्रव बन्ध आदि पदार्थ या तो जीवकी पर्याय होंगे या अजीवकी, अतः इनमें ही उनका अन्तर्भाव करके दो ही पदार्थ कहना चाहिए इनका पृथक् उपदेश निरर्थक है ? उत्तर-जीव और अजीवके परस्पर संश्लेष होनेपर संसार होता है, अतः संसार और मोक्षके प्रधान कारणोंके प्रतिपादनके लिए सात तत्त्व रूपसे विभाग किया है। यथा-मोक्षमार्गका प्रकरण है अतः मोक्षका निरूपण तो करना ही चाहिए। वह मोक्ष किसको होता है ? सो जीवका ग्रहण करना चाहिए। मोक्ष संसारपूर्वक होता है और संसारका अर्थ है जीव और अजीवका परस्पर संश्लेष । अतः अजीवका ग्रहण भी आवश्यक है। संसारके प्रधान कारण बंध और आस्रव हैं और मोक्षके प्रधान कारण संवर और निर्जरा । सामान्यमें अन्तर्भूत भी विशेषोंका प्रयोजनवश पृथक् निरूपण किया जाता है जैसे क्षत्रिय आए हैं, शूर वर्मा भी आया है' उसी तरह प्रयोजन विशेषसे इन सात तत्त्वोंका विभाग किया है। फिर, प्रश्नकर्ताने आस्रव आदिको जीव और अजीवसे पृथक् जाना है या नहीं ? यदि जाना है तो उनका पृथक् अस्तित्व सिद्ध हो ही जाता है। यदि नहीं जाना; तो प्रश्न ही कैसे करता है ? आस्रव आदि जीव और अजीवसे भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ हैं या नहीं ? यदि हैं, तो इनका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध हो ही जाता है । यदि नहीं; तो किसका किनमें अन्तर्भाव का प्रश्न किया जा रहा है ? गधेके सींगके अन्तर्भावका प्रश्न तो कहीं किसीने किया नहीं है। वस्तुतः जीव अजीव और आस्रवादिके भेदाभेदका अनेकान्त दृष्टि से विचार करना चाहिए। आस्रवादि द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकार हैं। द्रव्य पुद्गल रूप हैं तथा भाव जीवरूप । द्रव्यार्थिक दृष्टिकी प्रधानता रहनेपर अनादि पारिणामिक जीव और अजीव द्रव्यकी मुख्यता होनेसे आस्रव आदि पर्यायोंकी विवक्षा न होनेपर उनका जीव और अजीवमें अन्तर्भाव हो जाता है । जिस समय उन उन आस्रवादि पर्यायोंको पृथक् ग्रहण करनेवाले पर्यायाथिक नयकी मुख्यता होती है तथा द्रव्यार्थिकनय गौण हो जाता है तब आस्रव आदि स्वतन्त्र हैं उनका जीव और अजीवमें अन्तर्भाव नहीं होता। अतः पर्यायाथिक दृष्टि से इनका पृथक् उपदेश सार्थक है निरर्थक नहीं। ६६-१३ जीवादि शब्दोंका निर्वचन इस प्रकार है पाँच इन्द्रिय मनोबल वचनबल कायबल आयु और श्वासोच्छ्वास इन दश प्राणोंमेंसे अपनी पर्यायानुसार गृहीत प्राणोंके द्वारा जो जीता था, जी रहा है और जीवेगा इस त्रैकालिक जीवन गुणवालेको जीव कहते हैं । 'सिद्धोंके यद्यपि ये दश प्राण नहीं हैं फिर भी चूंकि वे इन प्राणोंसे पहिले जिए थे अतः उनमें भी जीवत्व सिद्ध हो जाता है' इस तरह सिद्धोंमें औपचारिक जीवत्वकी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें अभी भी ज्ञानदर्शनरूप भाव प्राण हैं अतः मुख्य ही जीवत्व है। अथवा रूढिवश क्रियाकी गौणतासे जीव शब्दका निर्वचन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy