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________________ १४] हिन्दो-सार २७९ जीवादिको सामान्यरूपसे भी बिना जाने नैसर्गिक श्रद्धानका होना कैसे संभव है ? यदि सामान्यज्ञान हो जाता है तो वह अधिगमज ही सम्यग्दर्शन कहलायगा नैसर्गिक नहीं। जिस समय इस जीवके सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ठीक उसी समय इसके मत्यज्ञान आदिकी निवृत्तिपूर्वक मतिज्ञान आदि सम्यग्ज्ञान सूर्यके ताप और प्रकाशकी तरह युगपत् उत्पन्न हो जाते हैं अत: नैसगिक सम्यग्दर्शनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं बन पाती; क्योंकि जिसके ज्ञानसे पहिले सम्यग्दर्शन हो उसीके वह नैसर्गिक कहा जायगा। यहां तो दोनों ही साथ साथ होते हैं। उत्तर-दोनों सम्यग्दर्शनोंमें अन्तरंग कारण तो दर्शनमोहका उपशम क्षय या क्षयोपशम समान है। इसके होनेपर जो सम्यग्दर्शन बायोपदेशके बिना प्रकट होता है वह निसर्गज कहलाता है तथा जो परोपदेशसे होता है वह अधिगमज । लोकमें भी शेर, भेड़िया, चीता आदिमें शूरा-क्रूरता आदि परोपदेशके बिना होनेसे नैसर्गिक कहे जाते हैं यद्यपि उनमें ये सब कर्मोदयरूप निमित्तसे होनेके कारण सर्वथा आकस्मिक नहीं है फिर भी परोपदेशकी अपेक्षा न होनेसे नैसर्गिक कहलाते हैं। अतः परोपदेश निरपेक्षमें निसर्गता स्वीकार की गई है।। 6७-१० प्रश्न-भव्य जीव अपने समयके अनुसार ही मोक्ष जायगा। यदि अधिगम सम्यक्त्वके बलसे समयसे पहिले मोक्षप्राप्तिकी संभावना हो तभी अधिगम सम्यक्त्वकी सार्थकता है। अतः एक निसर्गज सम्यक्त्व ही मानना चाहिए। उत्तर-यदि केवल निसर्गज या अधिगमज सम्यग्दर्शनसे मोक्ष माना गया होता तो यह प्रश्न उचित था। पर मोक्ष तो ज्ञान और चारित्र सहित सम्यक्त्वसे स्वीकार किया गया है। अतः विचार तो यह है कि वह सम्यग्दर्शन किन कारणोंसे उत्पन्न होता है। जैसे कि कुरुक्षेत्रमें बाहय प्रयत्नके बिना ही सुवर्ण मिल जाता है उसी तरह बाह्य उपदेशके बिना ही जो तत्त्वश्रद्धान प्रकट होता है उसे निसर्गज कहते हैं और जैसे सुवर्णपाषाणसे बाहय प्रयत्नों द्वारा सुवर्ण निकाला जाता है उसी तरह सदुपदेशसे जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह अधिगमज कहलाता है। अतः यहां मोक्षका प्रश्न ही नहीं है। फिर भव्योंकी कर्मनिर्जराका कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्षका ही। कोई भव्य संख्यात कालमें सिद्ध होंगे कोई असंख्यातमें और कोई अनन्त कालमें। कुछ ऐसे भी हैं जो अनन्तानन्त कालमें भी सिद्ध नहीं होंगे। अतः भव्यके मोक्षके कालनियमकी बात उचित नहीं है। जो व्यक्ति मात्र ज्ञानसे या चारित्रसे या दोसे या तीन कारणोंसे मोक्ष मानते हैं उनके यहां 'कालानुसार मोक्ष होगा' यह प्रश्न ही नहीं होता। यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय तो बाहय और आभ्यन्तर कारण-सामग्रीका ही लोप हो जायगा । ११-१२ इस सूत्रमें 'तत्' शब्दका निर्देश अनन्तरोक्त सम्यग्दर्शनके ग्रहणके लिए है। अन्यथा मोक्षमार्ग प्रधान था सो उसका ही ग्रहण हो जाता, और इस तरह निसर्गसे और बहुश्रुतत्व प्रदर्शनकी इच्छावाले मिथ्याष्टियोंको भी अधिगमसे मोक्ष मार्गका प्रसङ्ग आ जाता । 'अनन्तरका ही विधान या प्रतिषेध होता है' यह नियम 'प्रत्यासत्ति रहनेपर भी प्रधान बलवान् होता है' इस नियमसे बाधित हो जाता है; अतः तत्' शब्दके बिना प्रधानभूत मोक्षमार्गका ही सम्बन्ध हो जाता। अतः स्पष्टताके लिए 'तत्' शब्दका ग्रहण किया गया है । तत्त्वोंका निरूपण जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षारतत्त्वम् ॥४॥ जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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