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________________ २७८ तत्त्वार्यवार्तिक [१३ रूपसे तत्त्वश्रद्धा होती है अतः उनकी श्रद्धाको भी सम्यग्दर्शन कहना होगा। यदि 'तत्त्वकी श्रद्धा' को सम्यग्दर्शन कहा जाय, तो तत्त्व अर्थात् भावसामान्यकी श्रद्धा भी सम्यक्त्व कही जायगी। 'तत्त्व-भाव-सामान्य एक स्वतन्त्र पदार्थ है' यह मान्यता वैशेषिककी है। वे यह भी कहते हैं कि द्रव्यत्व गुणत्व कर्मत्व आदि सामान्य द्रव्यादिसे भिन्न हैं । अथवा, तत्त्व-एकत्व, 'पुरुषरूप ही यह जगत् है' इस ब्रह्मैकवादके श्रद्धानको भी सम्यग्दर्शनत्वका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। किन्तु यह उचित नहीं है क्योंकि अद्वैतवादमें क्रियाकारक आदि समस्त भेद-व्यवहारका लोप हो जाता है। यदि 'तत्त्वेन-तत्त्वरूपसे श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं तो 'किसका श्रद्धान, किसमें श्रद्धान' ये प्रश्न खड़े रहते हैं । अतः अर्थपदका ग्रहण अत्यन्त आवश्यक है अर्थात् तत्त्वरूपसे प्रसिद्ध अर्थोंका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। २६-२८ कोई वादी इच्छापूर्वक श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी बहुश्रुतत्व दिखानेके लिए या जैनमतको पराजित करनेके लिए अर्हत्तत्त्वोंका झूठा ही श्रद्धान कर लेते हैं, जैन शास्त्रोंको पढ़ते हैं। इच्छाके बिना तो यह हो ही नहीं सकता। अतः इन्हें भी सम्यग्दर्शन मानना होगा। यदि इच्छा का नाम सम्यग्दर्शन हो तो इच्छा तो लोभकी पर्याय है, निर्मोही केवलीके तो इच्छा नहीं होती अतः केवलीके सम्यक्त्वका अभाव हो जायगा। अतः 'जिसके होनेपर आत्मा यथाभूत अर्थको ग्रहण करता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं' यही लक्षण उचित है । ६२९-३१ सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है-१ सराग सम्यग्दर्शन, २ वीतरागसम्यग्दर्शन । प्रशम संवेग अनुकम्पा और आस्तिक्यसे जिसका स्वरूप अभिव्यक्त होता है वह सरागसम्यग्दर्शन है। रागादिकी शान्ति प्रशम है। संसारसे डरना संवेग है। प्राणिमात्रमें मैत्रीभाव अनुकम्पा है। जीवादि पदार्थोंके यथार्थस्वरूपमें अस्ति' बुद्धि होना आस्तिक्य है। मोहनीयकी सात कर्मप्रकृतियोंका अत्यन्त विनाश होनेपर आत्मविशुद्धिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है । सराग सम्यक्त्व साधन ही होता है और वीतराग सम्यग्दर्शन साध्य भी। - सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके प्रकार तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ . ___ सम्यग्दर्शन निसर्ग (स्वभाव) और अधिगम (परोपदेश) दो प्रकारसे उत्पन्न होता है। यहां 'उत्पद्यते-उत्पन्न होता है' इस क्रियाका अध्याहार कर लेना चाहिए। १-६ प्रश्न-निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं बन सकता; क्योंकि तत्त्वाधिगम हुए बिना उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ? जब तक रसायनका ज्ञान नहीं होगा तब तक रसायन की श्रद्धा हो ही नहीं सकती। अतः जब प्रत्येक सम्यग्दर्शनके लिए तत्त्वज्ञान आवश्यक है तब निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं बन सकता। जिस प्रकार वेदार्थको जाने बिना भी शूद्रको वेदविषयक भक्ति हो जाती है उसी तरह अनधिगत तत्त्वमें श्रद्धा भी हो सकती है' यह कथन उपयुक्त नहीं है; क्योंकि शूद्रको महाभारत आदि ग्रन्थोंसे वेदकी महिमा सुनकर या वेद ठियोंसे वेदके महत्त्वको जानकर वेदभक्ति होना उचित है पर ऐसी भक्ति नैसर्गिक नहीं कही जा सकती। किन्तु जीवादितत्त्व विषयक ज्ञान यदि किसी भी प्रकारसे पहिले होता है तो निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं हो सकेगा। इसी तरह मणिकी विशेष सामर्थ्यको न जानकर सामान्यसे उसकी चमक-दमकको देखकर मणिका ग्रहण और फलका मिलना ठीक भी है पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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