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________________ २८८ - तत्त्वार्थवार्तिक [१७ धर्मों में विरोधकी कोई संभावना ही नहीं है। जैसे एक ही देवदत्त भिन्न-भिन्न पुत्रादि सम्बन्धियोंकी दृष्टिसे पिता पुत्र मामा आदि निर्विरोध रूपसे व्यवहृत होता है। उसी तरह अस्तित्व आदि धर्मो का भी एक वस्तुमें रहने में कोई विरोध नहीं है। देवदत्त यदि अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है तो सबकी अपेक्षा पिता नहीं हो सकता। जैसे कि एक ही हेतु सपक्षमें सत् होता है और विपक्षमें असत् होता है उसी तरह विभिन्न अपेक्षाओंसे अस्तित्व आदि धर्मों के रहनेमें भी कोई विरोध नहीं है। ____ अथवा, जैसे वादी या प्रतिवादीके द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक हेतु स्वपक्षकी अपेक्षा साधक और परपक्षकी अपेक्षा दूषक होता है उसीप्रकार एक ही वस्तुमें विभिन्न अपेक्षाओंसे विविध धर्म रह सकते हैं। 'एक वस्तु अनेक धर्मात्मक है' इसमें किसी वादीको विवाद भी नहीं है । यथा-सांख्य सत्त्व, रज और तम, इन भिन्न स्वभाववाले धर्मोका आधार एक 'प्रधान' मानते हैं। वैशेषिक पृथिवीत्व आदि सामान्यविशेष स्वीकार करते हैं। एक ही पृथिवीत्व स्वव्यक्तियोमें अनुगत होनेसे सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति करानेके कारण विशेष कहा जाता है। इसीलिए इसकी सामान्यविशेष संज्ञा है। बौद्ध कर्कश आदि विभिन्न लक्षणवाले परमाणुओंके समुदायको एक रूप स्वलक्षण मानते हैं। इनके मतमें भी विभिन्न परमाणुओंमें रूपकी दृष्टि से कोई विरोध नहीं है। विज्ञानाद्वैतवादी एक ही विज्ञानको ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार त्रयाकार स्वीकार करते ही हैं । सभी वादी पूर्वावस्थाको कारण और उत्तरावस्थाको कार्य मानते हैं अतः एक ही पदार्थमें अपनी पूर्व और उत्तरपर्यायकी दृष्टिसे कारण-कार्य व्यवहार निर्विरोध रूपसे होता ही है। उसी तरह सभी जीवादि पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओंसे अनेक धर्मोके आधार होते हैं। जीवादिके अधिगमके अन्य उपाय निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ निर्देश-नाममात्र कथन या स्वरूप निश्चय, स्वामित्व-अधिकारी, साधन-कारण, अधिकरण-आधार, स्थिति-कालमर्यादा और विधान-भेद-प्रभेदसे भी जीवादिका अधिगम होता है। ६१-२ जिस पदार्थके स्वरूपका निश्चय हो जाता है उसीके स्वामित्व साधन आदि जाननेकी इच्छा होती है अतः सर्वप्रथम निर्देशका ग्रहण किया गया है। अन्य स्वामित्व आदिका प्रश्नोंके अनुसार कम है। ६३-५ पर्यायाथिक नयसे औपशमिक आदि भावरूप जीव है। द्रव्याथिक नयसे नामादि रूप जीव है । प्रमाणदृष्टिसे जीवका निर्देश उभयरूपसे होता है। १६-७ निश्चयदृष्टिसे जीव अपनी पर्यायोंका स्वामी है। जैसे कि अग्निका स्वामित्व उष्णता पर है। पर्याय और पर्यायीमें कथञ्चिद् भेद दृष्टि से स्वामित्व व्यवहार हो जाता है । व्यवहार नयसे सभी पदार्थों का स्वामी जीव हो सकता है। ८-९ निश्चय नयसे जीव अपने अनादि पारिणामिक भावोंसे ही स्वस्वरूपलाभ करता है । व्यवहार नयसे औपशमिकादि भावोंसे तथा माता-पिताके रजवीर्य आहार आदिसे भी स्वरूपलाभ करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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