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________________ २७२ तत्वार्थवार्तिक [ १२1१ है । इस पंचस्कन्धको नामरूप कहते हैं । विज्ञानसे ही नाम और रूपको नामरूप संज्ञाएं मिलती हैं अत: इन्हें विज्ञानसम्भूत कहा गया है । इस नामरूपसे ही चक्षु आदि पांच इन्द्रियां और मन ये षडायतन होते हैं । अतः षडायतनको नामरूपप्रत्यय कहा है । विषय इन्द्रिय और विज्ञानके सन्निपातको स्पर्श कहते हैं। छह आयतन द्वारों का विषयाभिमुख होकर प्रथम ज्ञानतन्तुओंको जाग्रत करना स्पर्श है । स्पर्शके अनुसार वेदना अर्थात् अनुभव होता है । वेदनाके बाद उसमें होनेवाली आसक्ति तृष्णा कहलाती है । उन उन अनुभवोंमें रस लेना, उनका अभिनन्दन करना, उनमें लीन रहना तृष्णा है । तृष्णाकी वृद्धिसे उपादान होता है । यह इच्छा होती है कि मेरी यह प्रिया मेरे साथ सदा बनी रहे, मुझमें सानुराग रहे और इसीलिए तृष्णातुर व्यक्ति उपादान करता है। इस उपादानसे ही पुनर्भव अर्थात् परलोकको उत्पन्न करनेवाला कर्म होता है। इसे भव कहते हैं । यह कर्म मन, वचन और काय इन तीनोंसे उत्पन्न होता है । इससे परलोकमें नए शरीर आदिका उत्पन्न होना जाति है । शरीर स्कन्ध का पक जाना जरा है और उस स्कन्धका विनाश मरण कहलाता है । इसीलिए जरा और मरणको जातिप्रत्यय बताया है । इस तरह यह द्वादशांगवाला चक्र परस्परहेतुक है । इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं । प्रतीत्य अर्थात् एकको निमित्त बनाकर अन्यका समुत्पाद अर्थात् उत्पन्न होना । इसके कारण यह भवचक्र बराबर चलता रहता है । जब सब पदार्थों में अनित्य निरात्मक अशुचि और दुःख रूप तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है, फिर अविद्याके विनाशसे क्रमश: संस्कार आदि नष्ट होकर मोक्ष प्राप्त हो जाता है । इस तरह बौद्धमत में भी अविद्यासे बन्ध और विद्यासे मोक्ष माना गया है। जनसिद्धान्त में भी मिथ्यादर्शन अविरति आदिको बन्धहेतु बताया है । पदार्थों में विपरीत अभिप्रायका होना ही मिथ्यादर्शन है और यह मिथ्यादर्शन अज्ञानसे होता है अतः अज्ञान ही बन्धहेतु फलित होता है । 'सामायिक मात्रसे अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं' इस आर्ष वचन में ज्ञानरूप सामायिक से स्पष्टतया सिद्धिका वर्णन है । अत: जब अज्ञानसे बंध और ज्ञानसे मोक्ष यह सभी वादियोंको निर्विवाद रूपसे स्वीकृत है तब सम्यग्दर्शनादि तीनको मोक्षका मार्ग मानना उपयुक्त नहीं है । एक बार एक लड़केको हाथीने मार डाला। एक वणिक्ने समझा कि मेरा लड़का मर गया है और वह पुत्र शोकमें बेहोश हो गया । जब कुशल मित्रोंने होशमें लाकर उस वणिक् को उसका जीवित पुत्र दिखाया तब उसे यह ज्ञान हुआ कि मेरा पुत्र जीवित है, मेरे पुत्रके समान कोई रूपवाला दूसरा ही लड़का मरा है तो वह स्वस्थ हो गया । इस लौकिक दृष्टान्त से भी यह सिद्ध होता है कि अज्ञानसे दुःख अर्थात् बन्ध और ज्ञानसे सुख अर्थात् मोक्ष होता है । ४७ समाधान - यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मोक्षकी प्राप्तिका सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनोंसे अविनाभाव है, वह इनके बिना नहीं हो सकती । जैसे मात्र रसायनके श्रद्धान ज्ञान या आचरण मात्रसे रसायनका फल - आरोग्य नहीं मिलता । पूर्णफलकी प्राप्ति के लिए रसायनका विश्वास ज्ञान और उसका सेवन आवश्यक ही है उसी तरह संसार व्याधिकी निवृत्ति भी तत्त्वश्रद्धान ज्ञान और चारित्रसे ही हो सकती है । अतः तीनों को ही मोक्षमार्ग मानना उचित है । 'अनन्ताः सामायिकसिद्धाः ' वचन भी तीनोंके मोक्षमार्गका समर्थन करता है । ज्ञानरूप आत्माके तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही सामायिक - समताभाव रूप चारित्र हो सकता है । सामायिक अर्थात् समस्त पापयोगोंसे निवृत्त होकर अभेद समता और वीतरागतामें प्रतिष्ठित होना । कहा भी है-क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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