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________________ ११] हिन्दी-सार २७१ ३८ जिस प्रकार वातादिके विकारसे उत्पन्न होनेवाले रोगोंके निदानको नष्ट करनेके कारण औषधि आरोग्यका मार्ग कहलाती है उसी तरह संसार रोगरूप मिथ्यादर्शनादि के कारणोंको नष्ट करनेके कारण सम्यग्दर्शनादि मोक्षके मार्ग कहे जाते हैं। ३९-४६ शंका-मिथ्याज्ञानसे ही सभी वादियोंने बन्ध माना है अतः मोक्ष भी केवल सम्यग्ज्ञानसे ही होना चाहिए अतः सम्यग्दर्शनादि तीन मोक्षके मार्ग नहीं हो सकते । यथा सांख्य (४०-४१) धर्मसे ब्राह्म सौम्य आदि उच्च योनियोंमें जन्म लेना पड़ता है तथा अधर्मसे मानुष पशु आदि नीच योनियों में। प्रकृति और पुरुषमें विवेक ज्ञान होनेसे मोक्ष होता है तथा प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्यय ज्ञानसे बन्ध । जबतक पुरुषको महान् बुद्धि, अहंकार, पांच तन्मात्राएं-स्पर्श रस गन्ध वर्ण और शब्द, अहंकारजन्य पांच इन्द्रियांपांचभौतिक शरीर आदि अनात्मीय पदार्थों में 'मैं सुनता हूं, मैं देखता हूं' आदि मिथ्या ज्ञान होता है, वह शरीरको ही आत्मा मानता है तब तक इसको विपर्ययज्ञानके कारण बन्ध होता है और वह संसारी है पर जब इसे प्रकृति और पुरुषमें भेदविज्ञान हो जाता है, वह पुरुषके सिवाय यावत् पदार्थोंको प्रकृतिकृत और त्रिगुणात्मक मानकर उनसे विरक्त होकर 'इनमें मैं नहीं हूं, मेरे ये नहीं हैं' यह परम विवेकज्ञान जाग्रत होता है तब सम्यग्ज्ञानसे मोक्ष हो जाता है । तात्पर्य यह कि सांख्य विपर्ययसे बन्ध और ज्ञानसे मोक्ष मानता है। वैशेषिक-इच्छा और द्वेषसे धर्म और अधर्मकी प्रवृत्ति होती है उनसे सुख और दुःख रूप संसार । जिस पुरुषको तत्त्वज्ञान हो जाता है उसे इच्छा और द्वेष नहीं होते, इनके न होनेसे धर्म-अधर्म नहीं होते, धर्म और अधर्मके न होनेसे नए शरीर और मनका संयोग नहीं होता, जन्म नहीं होता और संचित कर्मों का निरोध हो जानेसे मोक्ष हो जाता है। जैसे प्रदीप के बुझ जानेसे प्रकाशका अभाव हो जाता है उसी तरह धर्म और अधर्म रूप बन्धनके हट जानेपर जन्म-मरण-चक्ररूप संसारका अभाब हो जाता है । अतः षट्पदार्थका तत्त्वज्ञान होते ही अनागत धर्म और अधर्मकी उत्पत्ति नहीं होगी और संचित धर्माधर्मका उपभोग और ज्ञानाग्निसे विनाश होकर मोक्ष हो जाता है। अतः वैशेषिकके मतसे भी विपर्यय बन्धका कारण है और तत्त्वज्ञान मोक्षका । नैयायिक-तत्त्वज्ञानसे मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति होनेपर क्रमशः दोष प्रवृत्ति जन्म और दुःखको निवृत्ति होनेको मोक्ष कहते हैं। दुःख जन्म प्रवृत्ति दोष और मिथ्याज्ञानका कारणकार्यभाव है अर्थात् मिथ्याज्ञानका कार्य दोष, दोषका कार्य प्रवृत्ति, प्रवृत्तिका कार्य जन्म और जन्मका कार्य दुःख है। अतः कारणकी निवृत्ति होनेपर कार्यकी निवृत्ति होना स्वाभाविक ही है। आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिको ही मोक्ष कहते हैं। बौद्ध-अविद्यासे बन्ध तथा विद्यासे मोक्ष मानते हैं। अनित्य अनात्मक अशुचि और दुःखरूप सभी पदार्थोंको नित्य सात्मक शुचि और सुखरूप मानना अविद्या है । इस अविद्यासे रागादिक संस्कार उत्पन्न होते हैं । संस्कार तीन प्रकारके हैं-१ पुण्योपग (शुभ), २ अपुण्योपग (अशुभ), ३ आनेज्योपग (अनुभयरूप)। वस्तुको प्रतिविज्ञप्तिको विज्ञान कहते हैं। इन संस्कारोंके कारण वस्तुमें इष्ट अनिष्ट प्रतिविज्ञप्ति होती है, इसीलिए संस्कार विज्ञान में प्रत्यय अर्थात् कारण माना जाता है । इस विज्ञानसे नाम अर्थात् चार अरूपी स्कन्ध-वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान, तथा रूप अर्थात रूपस्कंध-पृथिवी जल अग्नि और वायु उत्पन्न होता ____Jain Education International... । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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