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________________ २७० तत्वार्थवार्तिक [११ २४ अथवा, ज्ञान दर्शनादि शब्दोंको भावसाधन कहना चाहिए-'ज्ञातिर्ज्ञानम्' अर्थात् जाननेरूप क्रिया, 'दृष्टिदर्शनम्' अर्थात् तत्त्वश्रद्धान, चरणं चारित्रम् अर्थात् आचरण । उदासीनरूपसे स्थित ज्ञान दर्शनादि क्रियाएं ही मोक्षमार्ग हैं। क्रियामें व्याप्त ज्ञानादिमें तो यथासंभव कर्तृ साधन करणसाधन आदि व्यवहार होंगे। ६२५ प्रश्न-यदि ज्ञानको ही आत्मा कहा जाता है तो ज्ञानशब्दको आत्मा शब्दकी तरह पुल्लिग और एकवचन होना चाहिए ? उत्तर-नहीं, एक ही अर्थमें व्यक्तिभेदसे लिंगभेद और वचनभेद हो जाता है। जैसे कि-'गेहं कुटी मठः' यहां एक ही घर रूप अर्थमें विभिन्न लिङ्गवाले शब्दोंका प्रयोग है। 'पुष्यः तारका नक्षत्रम्' यहां एक ही तारारूप अर्थ में विभिन्नलिङ्गक और विभिन्न वचनवाले शब्दोंका प्रयोग है। ६२६-२९ प्रश्न-सूत्रमें ज्ञान शब्दका ग्रहण पहिले करना चाहिए क्योंकि ज्ञानशब्द दर्शन शब्दसे थोड़े अक्षरोंवाला है और ज्ञानपूर्वक ही दर्शन होता है अतः पूर्ववर्ती भी है ? उत्तर-नहीं, जैसे मेघपटलके हटते ही सूर्यका प्रकाश और प्रताप एक साथ ही फैलता है उसी तरह दर्शनमोहका उपशम क्षय या क्षयोपशम होते ही आत्मामें ज्ञान और दर्शनकी युगपत् वृत्ति होती है। तात्पर्य यह कि जिस समय आत्मामें सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसी समय उसके मत्यज्ञान श्रुताज्ञान आदि मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि रूपसे सम्यग्ज्ञान बन जाते हैं अतः दोनोंमें पौर्वापर्य नहीं है। थोड़े अक्षर होनेके कारण ही पूर्वग्रहण नहीं होता, जो पूज्य होता है उसका अधिकाक्षर होनेपर भी पूर्वग्रहण करना न्याय्य है। दर्शन ही ज्ञानमें सम्यक्त्व लानेके कारण पूज्य है, अतः उसका ही प्रथम ग्रहण करना न्याय्य है। ३० सूत्रमें दर्शन और चारित्रके बीच में ज्ञानका ग्रहण किया गया है; क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक ही होता है। ३१-३३ 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' यहाँ सर्वपदार्थप्रधान द्वन्द्व समास है। इसका यह तात्पर्य है कि मोक्षमार्गके प्रति तीनोंकी प्रधानता है किसी एककी नहीं। इसीलिए बहुवचनका प्रयोग है। 'द्वन्द्व समासके साथ कोई भी विशेषण चाहे वह आदिमें प्रयुक्त हो या अन्तमें सबके साथ जुट जाता है' यह नियम है अतः सम्यक् विशेषणका दर्शनादिके साथ अन्वय हो जाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । जैसे कि 'देवदत्त जिनदत्त यज्ञदत्तको भोजन कराओ' यहाँ भोजन क्रियाका तीनोंमें अन्वय हो जाता है। ६ ३४ 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' इस बहुवचन पदके साथ समानाधिकरण होनेसे मार्ग शब्दमें बहुवचन और नपुसक लिंग नहीं हो सकता, क्योंकि मार्गस्वभावता तीनोंमें समान रूपसे होनेके कारण उस मार्गस्वभावताकी प्रधानतापर दृष्टि रखनेसे उसमें पुल्लिगता और एकवचनत्व रखनेमें कोई विरोध नहीं है। ३५ समस्त कर्मोके आत्यन्तिक उच्छेदको मोक्ष कहते हैं। मोक्ष शब्द 'मोक्षणं मोक्षः' इस प्रकार कियाप्रधान भावसाधन है, 'मोक्ष असने' धातुसे बना है। ३६-३७ मार्गशब्द प्रसिद्ध मार्गकी तरह है। जैसे कांटे आदिसे रहित राजमार्गसे यात्री अपने गन्तव्य स्थानको सुखपूर्वक पहुँच जाता है उसी तरह मिथ्यादर्शनादि कंटकों से रहित सम्यग्दर्शनादि मार्गसे मोक्षनगर तक सुखपूर्वक पहुंचा जा सकता है। मार्ग धातु अन्वेषण अर्थमें है अर्थात् मोक्ष जिसके द्वारा ढूंडा जाय उन सम्यग्दर्शनादिको मार्ग कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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