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________________ हिन्दी-सार २७३ नियोंकी क्रिया निष्फल है। दावानलसे व्याप्त वनमें जिस प्रकार अन्धा व्यक्ति इधर-उधर भागकर भी जल जाता है उसी तरह लँगड़ा देखता हुआ भी जल जाता है । एक चकस रथ नहीं चलता। अतः ज्ञान और क्रियाका संयोग ही कार्यकारी है। यदि अन्धा और लँगड़ा दोनों मिल जाय और अन्धेके कन्धेपर लंगड़ा बैठ जाय तो दोनों हीका उद्धार हो जाय । लँगड़ा रास्ता बताकर ज्ञानका कार्य करे और अन्धा पैरों चलकर चारित्रका कार्य करे तो दोनों ही नगरमें आ सकते हैं। ४८-५१ यदि ज्ञानमात्रसे ही मोक्ष माना जाय तो पूर्णज्ञानकी प्राप्तिके द्वितीय क्षणमें ही मोक्ष हो जायगा। एक क्षण भी पूर्णज्ञानके बाद संसारमें ठहरना नहीं हो सकेगा, उपदेश, तीर्थप्रवृत्ति आदि कुछ भी नहीं हो सकेंगे। यह संभव ही नहीं है कि दीपक भी जल जाय और अँधेरा भी रह जाय। उसी तरह यदि ज्ञानमात्रसे मोक्ष हो तो यह संभव ही नहीं हो सकता कि ज्ञान भी हो जाय और मोक्ष न हो। यदि पूर्णज्ञान होने पर भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जिनका नाश हुए बिना मुक्ति नहीं होती और जब तक उन संस्कारोंका क्षय नहीं होता तब तक उपदेश आदि हो सकते हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि संस्कारक्षयसं मक्ति होगी ज्ञानमात्र से नहीं। फिर यह बताइये कि संस्कारोंका क्षय ज्ञानसं होगा या अन्य किसी कारणसे ? यदि ज्ञानसे, तो ज्ञान होते ही संस्कारोंका क्षय भी हो जायगा और तुरंत ही मुक्ति हो जानेसे तीर्थोपदेश आदि नहीं बन सकेंगे। यदि संस्कार क्षयके लिए अन्य कारण अपेक्षित है तो वह चारित्र ही हो सकता है, अन्य नहीं । अतः ज्ञानमात्रसे मोक्ष मानना उचित नहीं है। यदि ज्ञानमात्रसे ही मोक्ष हो जाय तो सिरका मुंडाना, गेरुआ वेष, यम नियम जपतप, दीक्षा आदि सभी व्यर्थ हो जायगे। ५२ इसी तरह ज्ञान और वैराग्यसे भी मुक्ति माननेपर तीर्थोपदेश आदि नहीं बन सकेंगे। क्योंकि तत्त्वज्ञान होते ही विषयविरक्तिरूप वैराग्य अवश्य ही होगा और तुरंत मोक्ष हो जानेपर संसारमें ठहरना ही नहीं हो सकेगा। ५३-५५ यदि आत्माको नित्य और व्यापक माना जाता है तो उसमें न तो ज्ञानादिकी उत्पत्ति ही हो सकती है और न हलन-चलन रूप क्रिया ही। इस तरह किसी भी प्रकारको विक्रिया अर्थात् परिणमन न हो सकनेके कारण ज्ञान और वैराग्यरूप कारणोंकी संभावना ही नहीं है। आत्मा इन्द्रिय मन और अर्थके सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान निर्विकारी आत्मामें कैसे पैदा होगा ? जब आत्मा सदा एकसा रहता है, उसमें किसी भी प्रकारका परिवर्तन असंभव है तो कूटस्थ नित्य आकाशकी तरह मोक्ष आदि नहीं बन सकेंगे। इसी तरह आत्माको सर्वथा क्षणिक अर्थात प्रतिक्षण निरन्वयविनाशी माननेपर भी ज्ञानवैराग्यादि परिणमनोंका आधारभूत पदार्थ न होनेसे मोक्ष नहीं बन सकेगा। जिस मतमें सभी संस्कार क्षणिक हैं उसके यहाँ ज्ञानादिका उत्पत्ति के बाद ही तुरंत नाश हो जानेपर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध आदि नहीं बनेंगे और समस्त अनुभवसिद्ध लोकव्यवहारोंका लोप हो जायगा। क्षणोंकी अवास्तविक सन्तान मानना निरर्थक ही है। यदि सन्तान क्षणोंसे अभिन्न है तो क्षणों की तरह ही निरन्वय क्षणिक होगी। ऐसी दशामें उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। यदि क्षणोंसे भिन्न है तो उससे क्षणोंका परस्पर समन्वय कैसे हो सकेगा? आदि अनेक दूषण आते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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