SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १२ ] नारक होते हैं अनुसार मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ अन्तिम शरीरके अप्रतिघातित्व का वेद अर्थात् लिङ्गके भेद और उनका समर्थन १४९ ३६७ अर्थ १५७ ३७२ प्रतीघातका अर्थ १४६ ३६७ | अकाल मृत्युका नियम १५५ ३७२ यहाँ तैजस और कार्मण शरीर ही अ सूत्रस्थ औपपादिक आदि पदोंका अर्थ १५७ ३७२ प्रतीघाती क्यों कहे इसका कारण १४६ ३६७ तृतीय अध्याय अन्तके दो शरीर अनादि सम्बन्ध वाले हैं सात नरक भूमियोंका नाम निर्देश सूत्रमें आये हुए 'च' शब्दका तात्पर्य | व उनका श्राधार १५९ ३७३ शरीरं सम्बन्धको सर्वथा सादि सूत्रस्थ पदोंका साफल्य प्रदर्शन १५६ ३७३ मानने में दोष १४६ ३६७ सातों भूमियोंकी मुटाई शरीर सम्बन्धको सर्वथा अनादि 'पृथुतराः' श्वेताम्बर पाठका खण्डन १६१ ३७४ मानने में दोष सातों भूमियोंमें नरक संख्या १६१ ३७४ अन्तके दो शरीर किनके होते हैं १५० ३६७ नरकोंका निश्चित स्थान व उनके इन्द्रक एक जीवके एक साथ कितने शरीर | अादि भेद तथा प्रत्येक भूमिमैं - होते हैं इसका कथन प्रस्तार विचार व उनके नाम १६२ एक जीवके वैक्रियिक और आहारक प्रत्येक भूमिमै इन्द्रक आदि नरकोंकी एक साथ नहीं होते इस बात गहराई १६३ ३७५ ... का कथन १५० ३६८ | नारकी अशुभतर लेश्या आदिवाले अन्तिम शरीर निरुपभोग है १५१ ३६८ १६३ ३७५ उपभोग शब्दका अर्थ सूत्रस्थ पदोंके अनुसार लेश्यादिका तैजस शरीरका उपभोग प्रकरणमैं विशेष खुलासा १६३ ३७५ विचार क्यों नहीं किया १५१ ३६८ | नारकियोंको एक दूसरेके द्वारा दिये औदारिक शरीर किस जन्मसे उत्पन्न जानेवाले दुखोंका वर्णन १६४ ३७६ होता है इसका निरूपण १५१ प्रारम्भकी तीन भूमियोंमें संक्लिष्ट वैक्रिषिक शरीर किस जन्मसे उत्पन्न असुरों द्वारा दिये गये दुख १६५ ३७६ होता है इसका कथन १५१ ३६८ सूत्रस्थ पदोंका तात्पर्य वैक्रियिक शरीर लब्धिप्रत्यय भी है १५, क्रमसे नरकोंमें जीवोंकी उत्कृष्ट आयु लन्धिका अर्थ १५१ का वर्णन १६६ ३७७ सब शरीर वैक्रियिक क्यों नहीं हैं ? सूत्रस्थ शब्दोंका परस्पर सम्बन्ध . १६६ ३७७ इस बातका विचार १५२ ३६८ रत्नप्रभा श्रादिमें प्रति प्रस्तार जघन्य तैजस शरीर लब्धिज है १५२ ३६९ स्थितिका वर्णन १६७ ३७७ पाहारक शरीरका स्वरूप १५२ ३६६ प्रति प्रस्तार आयु लानेका करणसूत्र १६८ ३७८ सूत्र में आये हुए पदोंका विचार १५२ ३६६ | नरकोंमै उत्पत्तिका विरहकाल सूत्रमें आये हुए 'च' शब्दकी सार्थकता १५२ ३६६ नरकमें कौन जीव कहांतक उत्पन्न संज्ञा आदिके द्वारा सब शरीरोंका पर स्पर भेद-प्रदर्शन . १५३ ३६६ / किस नरकसे श्राकर जीव किस कौन गतिके जीव नपुंसक होते हैं १५६ ३७१ | अवस्थाको प्राप्त होते हैं और नपुंसक होनेका कारण किस अवस्थाको नहीं प्राप्त होते १६८ ३७८ देव नपुंसक नहीं होते १५६ ३७१ द्वीप और समुद्रोंके नाम १६९ ३७९ शेष गतिके जीव तीन वेदवाले होते हैं १५६ ३७२ जम्बू द्वीप संज्ञाका कारण १६६ ३७६ तीनों वेदोंकी उत्पत्तिके कारण १५७ ३७२ | लवणोद संज्ञाका कारण १६६ ३७६ १११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy