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________________ [ ११ ] मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ इद्रियोंका विषय १३२ ३५८ जन्मके अनेक भेद क्यों हैं इसका कारण १४१ ३६२ सूत्रस्थ शब्दों की व्युत्पत्ति १३२ ३५८ योनियोंके सचित्त आदि नौ भेद ॥ ३६३ पौर्वापर्य विचार १३३ ३५८ सचित्त आदि शब्दोंका अर्थ १४१ ३६३ पृथिवी श्रादिमें किसमें कितने गुण हैं सूत्रस्थ 'च' शब्दकी सार्थकता १४१ ३६३ इसका विचार १३३ ३५८ | सूत्रमें आये हुए 'एकशः' और 'तत्' ये स्पर्शादिक परस्पर और आत्मासे पदकी सार्थकता १४२ ३६३ कथञ्चित् अभिन्न हैं। योनि और जन्ममें भेद है १४२ ३६३ मनका विषय सचित्त आदि पदोंके पौर्वापर्यका विचार १४२ ३६३ श्रत श्रोत्र इन्द्रियका विषय नहीं है १३४ ३५६ किन जीवोंके कौन योनि होती हैं बनस्पत्यन्त जीवोंके एक स्पर्शन इस बातका निर्देश १४३ ३६३ १३४ ३५९ उत्तर योनियाँ चौरासी लाख हैं इस मूत्रस्थ पदोंका विशेष खुलासा १३४ ३५६ । बातका कथन १४३ ३६३ कृमि आदि जीवोंके एक एक इन्द्रिय गर्भ जन्म किन जीवोंके होता है ।१३. ३६१ अधिक है १३५ ३५९/ जराबुज आदि शब्दोंका तात्पर्य १४३ ३६४ सूत्रस्थ पदोंका विचार १३५ ३५६ पोतज शब्द न रखनेका कारण १४ ३६४ समनस्क शब्दका व्याख्यान १३६ ३६० जरायुज आदिके पौर्वापर्यका विचार १४४ ३६४ संज्ञा शब्दका अर्थ १३६ ३६० | उपपाद जन्म किन जीवोंके होता है १४५ ३६४ विग्रह गतिमें जीवके कर्मयोग होता है १३६ ३६० देवादि गतिके उदयसे जन्म भिन्न है १४५ ३६४ विग्रह पदका अर्थ १३६ ३६० सम्मच्छन जन्म किन जीवोंके होता है१५५ ३६५ कर्म शब्दका अर्थ १३७ ३६० शरीरके पाँच भेद योग शब्दका अर्थ शरीर शब्दका अर्थ १४५ ३६५ जीवकी गति श्रेणीके अनुसार औदारिक आदि पदोंकी व्युत्पत्ति तथा होती है १३. ३६. उनका अर्थ १४६ ३६५ मुक्त जोवकी गति १३८ ३६१ | सब शरीर कार्मण क्यों नहीं हैं इस संसारी जीवोंकी विग्रहगति कितने बातका स्पष्टीकरण १४६ ३६५ समयवाली है १३९ ३६१ कामेण शरीरके अस्तित्वकी सिद्धि १४६ ३६५ सूत्रस्थ पदोंका स्पष्टीकरण १३६ ३६१ औदारिक श्रादि पदोंके पौर्वापर्यका जीवको चार गतियोंके नाम और विचार १४७ ३६६ उनका समय १३६ ३६१ प्रौदारिक आदि शरीरोंके यथाक्रम अविग्रहवाली गतिका कालनिर्धारण १३९ ३६१ सूचमत्वका कथन १४७ ३६६ आत्मा क्रियावान् है इसकी सिद्धि १३६ ३६१ / तैजसके पूर्वके शरीरोंके प्रदेशोंका विचार १५७ ३६६ जीव कितने कालतक अनाहारक प्रकृतमें प्रदेश शब्दका अर्थ रहता है १४. ३१२ असंख्येय शब्दका अर्थ १४७ ३६३ ग्राहारका लक्षण १४० ३६२ उत्तरोत्तर शरीरोंके प्रदेश असंख्यात विग्रहगतिमें आहारका ग्रहण क्यों गुणे होनेसे वे महापरिमाण नहीं होता १४० ३६२ वाले क्यों नहीं हैं इस बातका किस गतिमें किस समय जीव अाहार निर्देश १४८ ३६६ __ ग्रहण करता है १४० ३६२ / अन्तिम दो शरीरों के प्रदेशोंका विचार १४८ ३६६ जन्मके भेद १४० ३६२ तैजस और कार्मण शरीरकी इन्द्रियों सम्मन्छन आदि शब्दोंके अर्थ १४० ३६२ द्वारा उपलब्धि न होनेका पौर्वापर्यपर विचार १४० ३६२ कारण १४८ ३६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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