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________________ अर्थात्-यह बड़े अचरज की बात है कि अनन्तवीर्य (अनन्त शक्तिशाली) भी अकलंक देव के पदों को पूरी तरह व्यक्त करना नहीं जानता । अकलंक के 'न्यायविनिश्चय' पर विवरण लिखते हुए वादिराज लिखते हैं 'गूदमर्थमकलंकवाङ्मयागाधभूमिनिहितं तदथिनाम् । व्यञ्जयत्यमलमनन्तवीर्यवाक दीपवति रनिश पदे-पदे ।। अर्थात्-अकलंक की वाङ्मयरूपी अगाध भूमि में निहित गूढ़ आशय को अनन्तवीर्य की वचनरूपी दीपशिखा रात दिन पद-पद पर उसके जानने को इच्छुक जनों के लिए व्यक्त करती है। अकलंक देव की कृतियां दो प्रकार की हैं-एक, पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों पर भाष्य रूप, और दूसरी स्वतन्त्र । प्रथम प्रकार की दो रचनाएँ हैं-तत्त्वार्थवातिक और अष्टशती। द्वितीय प्रकार की रचनाएँ हैं—सभाष्य लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह । ये सभी प्रकाशित हो चकी हैं । सभी मौलिक रचनाएं जैन न्याय या जैन प्रमाणशास्त्र से सम्बद्ध हैं । जैन प्रमाणशास्त्र एक तरह से अकलंक देव की ही देन है, उन्होंने ही उसका संवर्द्धन-संपोषण किया है। अकलंक देव के पहले पात्रकेसरी, श्रीदत्त आदि कई जैनाचार्य हुए जिन्होंने विलक्षणकदर्थन, जल्पनिर्णय आदि ग्रन्थ रचकर जैन न्याय का विकास किया था। किन्तु उनका साहित्य उपलब्ध न होने से उनके सम्बन्ध में कुछ लिखना सम्भव नहीं है । अतः उपलब्ध साहित्य के आधार पर स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन दिवाकर ने जनन्यायय का जो शिलान्यास किया उसी पर अकलंक देव ने जनन्याय का भव्य प्रासाद निर्माण किया। तत्त्वार्थवार्तिक (सभाष्य) अकलंकदेव रचित तत्त्वार्थवार्तिक आपके सामने है । यह तत्त्वार्थसूत्र पर रचा गया महान् ग्रन्थ है। इसीसे इसका नाम तत्त्वार्थवार्तिक है जो ग्रन्थकार ने आद्य मंगलश्लोक में स्वयं दिया है। तत्त्वार्थसूत्र की प्रथम टीका सर्वार्थसिद्धि है जो पूज्यपाद देवनन्दि रचित है। इस टीका की अनेक पंक्तियाँ तत्त्वार्थवातिक रूप में पाई जाने से यह स्पष्ट है कि अकलंक देव ने उसका भी आश्रय लिया है। तत्त्वार्थसूत्र के दो सूत्रपाठ प्रचलित हैं। दूसरा पाठ जो श्वेताम्बर मान्य है उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी है जिसे श्वेताम्बर सूत्रकार कृत मानते हैं । यह पाठ भी अकलंक देव के सामने रहा है; क्योंकि उन्होंने स्थान-स्थान पर उसकी आलोचना की है। चूंकि तत्त्वार्थसूत्र में दस अध्याय है अतः तत्त्वार्थवार्तिक में भी दस अध्याय हैं और दोनों का विषय भी समान है किन्तु अकलंक देव तो प्रखर दार्शनिक थे अतः प्रथम और पंचम अध्याय उनकी दार्शनिक समीक्षा और मन्तव्यों से ओत-प्रोत हैं । प्रथम सूत्र की व्याख्या में ही नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और बौद्धदर्शन के मोक्ष और संसार के कारणों की समीक्षा की है। जहाँ भी दार्शनिक चर्चा का प्रसग आया है वहाँ अकलंक देव की तार्किक सरणि के दर्शन होते हैं। इस तरह यह सैद्धान्तिक ग्रन्थ दर्शनशास्त्र का एक अपूर्व ग्रन्य बन गया है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि तत्त्वार्थवार्तिक में सैद्धान्तिक विवेचन नहीं है या कम है, प्रसंगानुसार उसकी चर्चा है। जैन सिद्धान्तों के जिज्ञासु इस एक ही ग्रन्थ के स्वाध्याय से अनेक शास्त्रों का रहस्य हृदयंगम कर सकते हैं। उन्हें इसमें ऐसी भी अनेक चर्चाएं मिलेंगी जो अन्यत्र नहीं हैं। प्रथम अध्याय के ७वे सूत्र की व्याख्या में अजीवादि तत्त्वों के साथ निर्देश, स्वामित्व आदि की ( ४ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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