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________________ अर्थात-बौद्ध आदि दार्शनिकों के मिथ्या उपदेश रूपी पंक से सकलंक हुए जगत को मानो अपने नाम को सार्थक बनाने ही के लिए भट्टाकलंक ने अकलंक कर दिया। कुछ ग्रन्थकारों ने भी अकलंक को बौद्धविजेता के रूप में स्मरण किया है । वादिराज सूरि अपने 'पार्श्वनाथचरित' (शक सं. ६४८) में लिखते हैं 'तर्कभूवल्लमो देव: स जयत्यकलंकधीः । जगद् द्रव्यमुषो येन दण्डिताः शाक्यदस्यवः ।।' अर्थात्-वे ताकिक अकलंक जयवन्त हों, जिन्होंने जगत् की वस्तुओं के अपहर्ता अर्थात् शून्यवादी बौद्ध दस्युओं को दण्ड दिया । 'पाण्डवपुराण' में तारादेवी के घड़े को पैर से ठुकराने का उल्लेख इस प्रकार है 'अकलंकोऽकलंक; स कलौ कलयतु श्रुतम् । पादेन ताडिता येन मायादेवी घटस्थिता ॥' 'कलिकाल में वे कलंक रहित अकलंक श्रुत को भूषित करें जिन्होंने घट में बैठी हुई माया रूपधारिणी देवी को पैर से ठुकराया । हनुमच्चरित में कहा है अकलंकगुरुर्जीयादकलंकपदेश्वरः । बौद्धानां बुद्धिवैधव्यदीक्षागुरुरुदाहृतः।। 'अकलंक पद के स्वामी वे अकलंक गुरु जयवन्त हों, जो बौद्धों की बुद्धि को वैधव्य की दीक्षा देने वाले गुरु कहे जाते हैं।' अकलक देव रचित न्यायविनिश्चय के टीकाकार वादिराज ने उन्हें 'ताकिकलोकमस्तकमणि' लिखा है। अकलंक देव के 'लघीयस्त्रय' पर न्यायक मुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र उन्हें इतरमतावलम्बी वादीरूपी गजेन्द्रों का दर्प नष्ट करनेवाला सिंह बतलाया है। अष्टसहस्त्री के टिप्पणकार लघु समन्तभद्र ने उन्हें 'सकलताकिक-चूड़ामणिमरीचिमेचकितचरणनखकिरणो भगवान भट्टाकलंकदेव' लिखकर उनके प्रति अपनी गहरी श्रद्धा प्रकट की है। ग्रन्थकार अकलंक उक्त प्रकार से भट्टाकलंक के वैदुष्य का परिचय प्राचीन उल्लेखों से मिलता है । यह परिचय साक्षात न होकर परम्परया है। उनके अगाध पाण्डित्य और अनुपम वैदृष्य तथा प्रौढ़ लेखनी का परिचय तो उनकी कृतियों से मिलता है। उन्होंने अपने मौलिक ग्रन्थों पर भाष्य भी रचे हैं। फिर भी वे इतने दुरूह और जटिल हैं कि उनके टीकाकारों को भी उनका व्याख्यान करने में अपनी असमर्थता प्रकट करना पड़ी है। अकलंक के व्याख्याकार भी कोई साधारण विद्वान नहीं थे। वे थे जैन न्याय के मर्धन्य विद्वान अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, वादिराज और प्रभाचन्द्र। अकलंक के सिद्धि-विनिश्चय ग्रन्थ की टीका प्रारम्भ करते हुए अनन्तवीर्य लिखते हैं देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्त तु सर्वतः । न जानीतेऽकलंकस्य चित्रमेतद परं भुवि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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