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________________ योजना, २०वें सूत्र की व्याख्या में द्वादशांग के विषयों का परिचय, २१-२२वें सूत्र की व्याख्या में अवधि - ज्ञान का वर्णन, इसी प्रकार दूसरे अध्याय के ७ वें सूत्र की व्याख्या में सान्निपातिक भावों का विवेचन, जो अत्यत्र नहीं है, तीसरे अध्याय में अधोलोक तथा मध्यलोक का और चौथे अध्याय में ऊर्ध्वलोक का बड़े विस्तार से निरूपण किया गया है । अकलंक देव के सामने षट्खण्डागम उपस्थित था तथा वे उसके विशेषज्ञ थे, यह बात तत्त्वार्थवार्तिक में आगत उद्धरणों से स्पष्ट है । षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान का नामोल्लेख आगम और आर्ष विशेषण के साथ आया है । सूत्र १/२१/७ में लिखा है- 'आगमे जीवस्थानादी ।' इसी प्रकार सूत्र २ / ४६ में लिखा हैआह चोदकः जीवस्थाने योगभंगे इत्यादि । पाँचवें अध्याय के सूत्र ३७ की व्याख्या में लिखा है - ' तदुक्तमार्षे वर्गणायां बन्धविधाने' यहाँ षट्खण्डगम के वर्गणाखण्ड के बन्धन भनियोगद्वार के अन्तर्गत द्रव्यबन्ध की प्ररूपणा के सूत्र ३२-३३ का निर्देश किया है और लिखा है कि तत्त्वार्थसूत्र में 'बन्धेऽधिको पारिणामको सूत्र उसी के अनुसार रचा गया है । इसी प्रकार, नौवें अध्याय के ७वें सूत्र के अन्तर्गत चौदह मार्गणा का कथन षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा का अनुगामी है । अनेकान्तवाद के तो अकलंक देव महापण्डित ही थे । इसी से प्रायः सूत्रस्थ विवादों का निराकरण अनेकान्त के आधार पर किया गया है। इतना ही नहीं, प्रथम अध्याय के 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र की व्याख्या में सप्तभगी का और चतुर्थ अध्याय के अन्तर्गत अनेकान्तवाद का बहुत विस्तार से विवेचन है । इस प्रकार 'तत्त्वार्थवार्तिक' तत्त्वार्थ सूत्र पर एक मौलिक भाष्य है । अकलंक देव का समय 'अकलंकचरित में' एक श्लोक इस प्रकार पाया जाता है विक्रमार्कशकाब्दीय-शत सप्त प्रमाजुषि । कालेsaiकयतिनो बौद्धर्वादो महानभूत् । इसमें कहा है कि विक्रमार्क शक संवत् ७०० में अकलंक यति का बौद्धों के साथ महान् शास्त्रार्थं हुआ । 'इन्सक्रिप्शन्स एट श्रवणबेलगोला' के दूसरे संस्करण की भूमिका में आर. नरसिंहाचार्य ने उक्त श्लोक उद्धृत किया है और उसका अर्थ विक्रम संवत् ७०० ही किया, तथा यही काल उचित प्रतीत होता है किन्तु कुछ विद्वान् इसे शक संवत् ७०० अर्थात् वि. सं. ८३५ लेते हैं जो उचित प्रतीत नहीं होता । स्व. डॉ. हीरालाल जी ने धवला टीका की समाप्ति का काल शक सं. ७३८ निश्चित किया है और उसकी रचना का प्रारम्भ काल शक सं. ७१४ माना है । धवला टीका के प्रारम्भ में ही अकलंक देव के तत्त्वार्थवार्तिक के उद्धरण तत्त्वार्थ-भाष्य नाम से मिलते हैं ।1 यदि अकलंक का समय शक सं. ७०० माना जाता है तो वे एक तरह से धवला टीकाकार वीरसेन के दीघं समकालीन ठहरते हैं । ऐसी स्थिति १ 'उक्त च तत्त्वार्थभाष्ये' षट्खं. पु. १, पृष्ठ १०४ । ( ५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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