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________________ ४८] मोक्षशास्त्र सटीक पञ्चविंशति पञ्चदश दश त्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्त्राणि) तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दश लाख, तीन लाख पांच कम एक लाख (च) और ( पञ्च एव ) पांच ही नरक-बिल हैं। ये बिल जमीन में गड़े हुए ढोलकी पोल के समान होते है ॥२॥ नारकियोंके दुःखका वर्णन नारका नित्याशुभतरलेश्या' परिणाम देहवेदना विक्रियाः ॥३॥ अर्थ- नारकी जीव हमेशा ही अत्यन्त अशुभ लेश्या, परिणाम, शरीर, वेदना और विक्रियाके धारक होते हैं। परिणाम-स्पर्श गंध वर्ण और शब्दको परिणाम कहते है। परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ अर्थ- नारकी जीव परस्परमें एक दूसरेको दुःख उत्पन्न करते हैंवे कुत्तोंकी तरह परस्परमें लड़ते हैं ॥४॥ संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्चप्राक् चतुर्थ्याः।५। 1- यह द्रव्यलेश्याओंका वर्णन है जो कि आय पर्यन्त रहती हैं। भाव लेश्याए अन्तर्मुहूर्तमें बदलती रहती हैं । परन्तु वह परिवर्तन अपने ही अवान्तर भेदमें ही होता हैं । पहली और दूसरी पृथ्वीमें कापोतीलेश्यायें, तीसरी पृथ्वीके ऊपरी भागमें कापोती और नीचले भागमे नील चौथीमें नील, पांचवीके ऊपरी भागमें नील और नीचले भागमें कृष्ण तथा छठवीं और सातवीं पृथ्वीमें भी कृष्णलेश्या होती हैं। 2-देह-पहली पृथ्वीमें देहकी ऊंचाई ५ धनुष, ३ हाथ और ६ अंगुल है। नीचे के नरकोंमे क्रम क्रमसे दुनी, दूनी ऊँचाई होती है । 3-वेदना-१. २. ३ और ४ पृथ्वीमें सिर्फ उष्ण वेदना, ५ वीं पृथ्वीके ऊपरी भाग में उष्ण और नीचे भागमें शीत तथा ६ और ७ वीं पृथ्वीमें महाशीतकी वेदना हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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