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________________ - तृतीय अध्याय [ ४९ अर्थ- (च) और वे नारकी ( चतुर्थ्या:प्राक् ) चौथी पृथ्वीसे पहले पहले अर्थात् तीसरी पृथ्वी पर्यन्त (संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाः) अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामोंके धारक अम्बावरीष जातिके असुरकुमार देवोंके द्वारा उत्पन्न दुःखसे युक्त होते है। अर्थात् तीसरे नरक तक जाकर अम्बावरीष--असुरकुमार उन्हें पूर्व वैरका स्मरण दिलाकर आपसमें लड़ते है और उन्हें दुःखी देखकर हर्षित होते हैं। उनके इसी प्रकारकी कषायका उदय रहता है। नरकोमें उत्कृष्ट आयुका प्रमाणतेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ ___अर्थ- ( तेषु ) उन नरकोंमें ( सत्त्वानां ) नारकी जीवोंकी ( परा स्थितिः) उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे ( एक त्रि सप्तदश द्वाविंशति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा) एक सागर, तीन सागर, सात सागर, दश सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर और तेंतीस सागर हैं। नोट- नरकोंमें भयानक दुःख होनेपर भी असमयमें मृत्यु नहिं होती॥६॥ मध्य लोकका वर्णन कुछ द्वीप समुद्रोंके नामजम्बूद्वीपलवणोदादयःशुभनामानोद्वीपसमुद्राः ॥ अर्थ- इस मध्यलोकमें ( शुभनामानः ) अच्छे अच्छे नामवाले ( जम्बूद्वीपलवणोदादयः द्वीपसमुद्राः ) जम्बूद्वीप आदिद्वीप और लवणसमुद्र आदि समुद्र हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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