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द्वितीय अध्याय
[ ४५ तैजस सिन्दुरके समान लाल रंगका होता है तथा बांये कन्धेसे प्रकट होता हैं। शुभ तैजससे १२ योजन सुभिक्ष आदि होते हैं और अशुभ तैजससे १२ योजन प्रमाण क्षेत्र भस्म हो जाता है ।
आहारक शरीरका स्वामी व लक्षण
शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव
अर्थ - (आहारकम् ) आहारक शरीर (शुभम् ) शुभ हैं अर्थात् शुभ कार्यको करता है (विशुद्धम् ) विशुद्ध हैं अर्थात् विशुद्ध कर्मका कार्य है (च) और ( अव्याघाति) व्याघातबाधा रहित है तथा (प्रमत्तसंयतस्यैव ) प्रमत्तसंयत नामक छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके ही होता है ।। ४९ ।।
शरीरभेद स्वामी और जन्म
स्वामी
शरीर
औदारिक २ वैक्रियिक
३ आहारक ४ तैजस
५
कार्मण
मनुष्य-तियञ्च
देव नारकी (लब्धि प्रत्ययकी अपेक्षा मनुष्य भी) छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि समस्त संसारी
समस्त संसारी
लिंग (वेद) के स्वामी नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥
अर्थ- नारकीय और सम्मूर्छन जन्मवाले जीव नपुंसक होते हैं।
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जन्म
गर्भ समूर्च्छन
उपपाद
न देवाः ॥ ५१ ॥
अर्थ- देव नपुंसक नहीं होते। अर्थात् देवोंमें स्त्रीलिंग और पुरुषलिंग ये दो ही लिंग होते हैं ॥ ५१ ॥
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