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________________ द्वितीय अध्याय द्वितीय अध्याय जीवके असाधारण भावऔपशमिक क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥ १ ॥ अर्थ - ( जीवस्य) जीवके (औपशमिक क्षायिकौ ) औपशमिक और क्षायिक ( भावौ ) भाव ( च मिश्रः ) और मिश्र तथा ( औदयिकपारिणामिकौच) औदयिक और पारिणामिक ये पांचों ही भाव ( स्वतत्वम् ) निजके भाव हैं अर्थात् जीवको छोड़कर अन्य किसीसे नहीं पाये जाते । उपशम तथा औपशमिक भाव- द्रव्य क्षेत्र काल भावके निमित्तसे कर्मकी शक्तिके प्रकट न होनेको उपशम कहते हैं और कर्मोके उपशमसे आत्माका जो भाव होता है उसे औपशमिक भाव कहते हैं । जैसे निर्मलीके संयोगसे पानीकी कीचड़ नीचे बैठ जाती है और पानी साफ हो जाता है। क्षय तथा क्षायिक भाव- कर्मोके समूल विनाश होनेको क्षय कहते हैं। जैसे पूर्व उदाहरणमें जो कीचड़ नीचे बैठ गई थी उस कीचड़का बिलकुल अलग हो जाना । कर्मोके क्षयसे जो भाव होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं । [ २५ क्षयोपशम तथा क्षायोपशमिक भाव (मिश्र) का लक्षणवर्तमानकालमें उदय आनेवाले सर्वघाति - स्पर्द्धकोंका उदयाभावी' क्षय तथा उन्हीके आगामीकालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सवस्थारूप उपशम और देशघातिस्पर्द्धकोंका 'उदय होनेको क्षयोपशम कहते हैं । जैसे पानीकी स्वच्छताको बिलकुल नष्ट करनेवाले कीचड़के परमाणुओंके Jain Education International 3 1. जो जीवके सम्यक्त्व तथा ज्ञानादि अनुजीवी गुणोंको पूरी तौरसे घाते उसे मघाती कहते हैं। 2. विना फल दिये हुए उदयागत कर्मोका खिर जाना। 3. एक समय जितने कर्मपरमाणु उदयमें आवें उन सबके समूहको निषेक कहते है। 4. जो जीवके ज्ञानादि गुणोंको एकदेश घाते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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