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________________ श्री उमास्वामी विरचितमोक्षशास्त्र सटीक प्रथम अध्याय मङ्गलाचरण दोहा- वीरवदन-हिमगिरिनिकसि. फैली जो जग रङ्ग। नय-तरङ्ग युत गङ्ग वह, क्षालै पाप अभङ्ग। मोक्षमार्गस्य नेतारं', भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ अर्थ- मैं मोक्षमार्गके नेता, कर्मरूपी पर्वतोके भेदन करनेवाले और समस्त तत्त्वोंको जाननेवाले आप्तको उनके गुणोंकी प्राप्तिके लिये वन्दना करता हूँ। विशेष-- यद्यपि इस श्लोकमें विशेष्य-आप्तका निर्देश नहीं किया गया है तथापि विशेषणों द्वारा उसका बोध हो जाता है, क्योंकि मोक्ष मार्गका नेत्तृत्व,कर्मरूपी पर्वतोंका भेत्तृत्व और समस्त तत्वोंका ज्ञात्तृत्व आप्त अर्थात् अहंत देवमें ही संभव होता है । यहां विशेष्यका उल्लेखनकर मात्र विशेषणोंका निर्देश कर वन्दना करनेवाले आचार्यने अपना यह 1. जो स्वयं माग पर चलकर अन्य पुरूषोंको मार्ग प्रदर्शन करता है. वह नेता कहलाता है। 2. इष्टसिद्धिमें पर्वतोंके समान वाधक होनेके कारण कर्मोमें पर्वतोंका आरोप किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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