________________
शंका समाधान
[१९७ वीरसेनस्वामी “ अस्पष्ट ग्रहणको व्यंजनावग्रह और स्पष्ट ग्रहणको अर्थावग्रह कहते हैं " इस मतका खण्डन किया है। वे लिखते हैं कि यदि अस्पष्ट ग्रहणको व्यंजनावग्रह माना जाय तो चक्षु इन्द्रियों के द्वारा अस्पष्ट ग्रहण होनेपर उसे भी व्यंजनावग्रहका प्रसंग प्राप्त होगा। परन्तु चक्षु इन्द्रियोंसे व्यंजनावग्रह होता नहीं ऐसा सूत्र वचन है। अतः प्राप्त अर्थका ग्रहण व्यंजनावग्रह और अप्राप्त अर्थका ग्रहण अर्थावग्रह है यह निष्कर्ष निकलता है। इस परसे यह फलित होता है कि चक्षु
और मनसे केवल अप्राप्त अर्थका ही ग्रहण होता है, किंतु शेष चार इन्द्रियां प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकारके अर्थका ग्रहण करती हैं।
• वीरसेनस्वामी लिखते हैं कि यदि ऐसा न माना जाय तो स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका विषय ९ योजन आदि बतलाया है वह नहीं बनता है। क्योंकि ये स्पर्शन आदि इन्द्रियां दूरके पदार्थको नहीं जानती, केवल स्पष्ट पदार्थको ही ग्रहण करती है तो इनका विषय स्पष्ट ही लिखना था। परन्तु ऐसा न करके अलग अलग इंद्रियवाले जीवोंके इनका विषय परिणाम जबकि अलग अलग बतलाया है इससे ज्ञान होता है कि ये स्पर्शनादि इंद्रियां प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकारके पदार्थोको जानती हैं।
[७] शंका- चक्षुइन्द्रिय अप्राप्यकारी क्यों है ?
[७] समाधान- एक तो चाइन्द्रिय स्पष्ट अंजन आदिको ग्रहण नहीं करती है। दूसरे भिन्न देशमें स्थित दो पदार्थोंका इसके द्वारा एकसाथ ग्रहण होता है। तीसरे चाइन्द्रियके विषयमें क्षेत्रभेद प्रतीत होता है। जब कोई चक्षुइन्द्रियके द्वारा किसी पदार्थको ग्रहण करता है वह उससे कितनी दूर है यह स्पष्ट मालूम होता है इससे ज्ञात होता है कि चाइन्द्रिय अप्राप्यकारी है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org