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मोक्षशास्त्र सटीक [५] शंका- दर्शनका क्या स्वरूप है ?
[५] समाधान-आगममें सामान्य ग्रहणको दर्शन बतलाया है। इसकी व्याख्या करते हुए वीरसेनस्वामीने सामान्य शब्दका अर्थ आत्मा किया है। वे लिखते है कि वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। इसलिए दर्शनके द्वारा केवल सामान्यका और ज्ञानके द्वारा केवल विशेषका ग्रहण नहीं हो सकता। किन्तु दर्शन और ज्ञान दोनोंके द्वारा सामान्य विशेषात्मक वस्तुका ही ग्रहण होता है। इससे यह निश्चित हुआ कि जब आत्मा किसी पदार्थको ग्रहण करनेके सन्मुख होता है तब सर्व प्रथम जो अन्तर्मुख उपयोग होता है उसे दर्शन कहते हैं और बहिर्भव पदार्थके उपयोगको ज्ञान कहते हैं।
[६] शंका-व्यंजन और अर्थमें क्या भेद है ?
[६] समाधान-वीरसेनस्वामीने प्रकृति अनुयोगद्वारमें अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रहका जो लक्षण लिखा है उससे ज्ञात होता है कि जो पदार्थ इंद्रियोंसे सम्बद्ध होकर जाना जाता है वह इंद्रियों द्वारा ग्रहण करनेकी प्रथम अवस्थामें व्यंजन कहलाता है। तथा जो पदार्थ इंद्रियोंसे सम्बद्ध न होकर जाना जाता है वह, और जो पदार्थ इंद्रियोंसे सम्बद्ध होकर जाना जाता है वह भी आद्य ग्रहणके पश्चात् अर्थ कहलाता है। सर्वार्थसिद्धिमें चक्षु आदि इंद्रियोंके विषयको अर्थ
और अव्यक्त शब्दादिको व्यंजन कहा है। यहां व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रहको दृष्टांत द्वारा समझाते हुए लिखा है कि जिस प्रकार नया मिट्टीका सकोरा एकबार दो तीन बून्दोंके डालनेसे गीला नहीं होता है किंतु पुनः पुनः सींचनेसे वह गीला हो जाता है उसी प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा दो तीन आदि समयों में ग्रहण किये शब्दादि विषय व्यक्त नहीं होते हैं किंतु पुनः पुनः अवग्रह होनेपर वे व्यक्त हो जाते हैं। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रहमें यही अन्तर है। किंतु
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