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नवम अध्याय
[१६१ अर्थ- १ क्षुधा, २ तृष्णा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंशमशक, ६.नाग्न्य, ७ अरति, ८ स्त्री, ९ चर्या, १० निषद्या, ११ शय्या, १२ आक्रोश, १३ वध, १४ याचना, १५ अलाभ, १६ रोग, १७ तृष्ण-स्पर्श, १८ मल, १९ सत्कार पुरस्कार, २० प्रज्ञा, २१ अज्ञान और २२ अदर्शन, ये बाईस परिषह हैं।
क्षुधा- ( भूख ) के दुःखको शांत भावसे सह लेना क्षुधा परिषहजय है।
तृष्णा- पिपासारुपी अग्निको धर्मरुपी जलसे शांत करना तृष्णा परिषहजय है।
शीत-शीतकी वेदनाको शांत भावोंसे सहना शीत परिषहजय है। उष्ण- गर्मीकी वेदनाको शांत भावोंसे सहना उष्ण परिषहजय है।
दंशमशक- डांश, मच्छर, बिच्छू, चिंउन्टी आदिके काटनेसे उत्पन्न हुई वेदनाको शांत भावोंसे सहना सो दंशमशक परिषहजय है।
नाग्न्य- नग्न रहते हुये भी मनमें किसी प्रकारका विकार नहीं करना सो नाग्न्य परिषहजय है। - अरति-अरतिके कारण उपस्थित होनेपर भी संयममें अरति अर्थात् अप्रीति नहीं करना सो अरति परिषहजय है।
स्त्री- स्त्रियोंके हावभाव, प्रदर्शन आदि उपद्रवोंको शांत भावसे सहना, उन्हे देखकर मोहित नहीं होना सो स्त्री परिषहजय है।
चर्या- गमन करते समय खेदखिन्न नहीं होना सो चर्या । परिषहजय है।
निषद्या- ध्यानके लिये नियमित कालपर्यंत स्वीकार किये हुए । आसनसे च्युत नहीं होना सो निषद्या परिषहजय है।
शय्या- विषय कठोर कंकरीले आदि स्थानोंमें एक करवटसे निद्रा लेना और अनेक उपसर्ग आनेपर भी शरीरको चलायमान नहीं करना, सो शय्या परिषहजय है।
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