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________________ नवम अध्याय - __ अनित्यानुप्रेक्षा-संसारके समस्त पदार्थ इन्द्रधनुष बिजली अथवा जलके बबूलेके समान शीघ्र ही नष्ट हो जानेवाले है, ऐसा विचार करना सो अनित्यानुप्रेक्षा है। अशरणानुप्रेक्षा- जिस प्रकार निर्जन वनमें भूखे सिंहके द्वारा पकड़े हुए हरिणके बच्चेको कोई शरण नहीं हैं उसी प्रकार इस संसारमें मरते हुए जीवको कोई शरण नहीं हैं। यदि अच्छे भावोंसे धर्मका सेवन किया है तो वहीं आपत्तियोंसे बचा सकता है। इस प्रकार चिन्तवन करना सो अशरण-अनुप्रेक्षा है। संसारानुप्रेक्षा- इस चर्तुगति रुप संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव पितासे पुत्रसे, पुत्रसे पिता, स्वामीसे दास, दाससे स्वामी हो जाता है। और तो क्या, स्वयं अपना भी पुत्र हो जाता है, इत्यादि संसारके दुःखमय स्वरुपका विचार करना सो संसारानुप्रेक्षा है। एकत्वानुप्रेक्षा- जन्म, जरा, मरण, रोग आदिके दुःख मैं अकेला ही भोगता हूँ, कुटुम्बी आदि जन साथी नहीं है इत्यादि विचार करना सो एकत्वानुप्रेक्षा है। अन्यत्वानुप्रेक्षा- शरीरादिसे अपनी आत्माको भिन्न चिन्तवन करना सो अन्यत्वानुप्रेक्षा है। अशुचित्वानुप्रेक्षा- यह शरीर महा अपवित्र है, खून, मांस आदि से भरा हुआ है, स्नान आदिसे कभी पवित्र नहीं हो सकता। इससे सम्बन्ध रखनेवाले दूसरे पदार्थ भी अपवित्र हो जाते है, इत्यादि शरीरकी अपवित्रता का विचार करना सो अशुचित्वानुप्रेक्षा है। आस्रवानुप्रेक्षा- मिथ्यात्व आदि भावोंसे कर्मोका आस्रव होता है, आस्रव ही संसारका मूल कारण है, इस प्रकार विचार करना सो आस्त्रवानुप्रेक्षा है। संवरानुप्रेक्षा- आत्माके नवीन कर्मोका प्रवेश नहीं होने देना सो संवर है। संवरसे ही जीवोंका कल्याण होता है, ऐसा विचार करना सो संवरानुप्रेक्षा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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