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________________ नवम अध्याय [१५५ नवम अध्याय संवर और निर्जरा तत्वका वर्णन संवरका लक्षणआस्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ अर्थ- आस्रवका रोकना सो संवर हैं। अर्थात् आत्मामें जिन कारणोंसे कर्मोका आस्रव होता था उन कारणोंको दूर कर देनेसे जो कर्मोका आना बन्द हो जाता है उसको संवर कहते हैं। संवरके दो भेद हैं-१ द्रव्य संवर( पुद्गलमय कर्मोके आसवका रूकना ) और २ भावसंवर (कर्मास्रवके कारणभूत भावोंका अभाव होना), ॥१॥ संवरके कारण-- स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः।२। ___ अर्थ- वह संवर तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहोंको जीतना और पांच प्रकारका चारित्र इन छह कारणोंसे होता है। गुप्ति-संसार-भ्रमणके कारणस्वरूप काय, वचन और मन इन तीन योगोंके विग्रह करनेको गुप्ति कहते हैं। समिति-जीवोंकी हिंसासे बचनेके लिये यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेको समिति कहते हैं। धर्म-जो आत्माको संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर अभीष्ट स्थानमें प्राप्त करावे उसे धर्म कहते है। अनुप्रेक्षा-शरीरादिके स्वरूपका बार बार चिन्तवन करनेको अनुप्रेक्षा कहते है। परिषहजय-भूख आदिकी वेदना उत्पन्न होनेपर कर्मोकी निर्जरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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