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________________ - अष्टम अध्याय प्रचलाप्रचला- प्रचलाके ऊपर प्रचलाके आनेको प्रचलाप्रचला प्रकृति कहते हैं। प्रचलाप्रचलाके द्वारा शयन अवस्थामें मुंहसे लार बहने लगती है तथा अंगोपांग चलमें लगते हैं। स्त्यानगृद्धि-जिस निगाके द्वारा सोती अवस्थामें भी नाना तरहके भंयकर कार्य कर डाले और जागने पर कुछ मालूम ही नहीं हो कि मैने क्या किया है उसको स्त्यानगृद्धि कहते हैं ॥ ७॥ वेदनीयके दो भेद सदसवेद्ये ॥८॥ अर्थ- सद्वेद्य और असद्वेद्य ये दो वेदनीय कर्मके भेद है। सद्वेद्य- जिसके उदयसे देव आदि गतियोंमें शारीरिक तथा मानसिक सुख प्राप्त हो उसे सद्वेद्य कहते हैं। असद्वेद्य- जिसके उदयसे नरकादि गतियोंमें तरह-तरहके दुःख प्राप्त हो उसे असद्वेद्य कहते हैं॥८॥ मोहनीयके २८ भेददर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाःसम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकश:क्रोधमानमायालोभः। अर्थ- दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय, कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय इन चार भेदरूप मोहनीय कर्म क्रमसे तीन, दो, नौ और सोलह भेदरूप हैं। जिनमें से सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व ये 1. यह पाँच तरहकी निंद्रा जिस कर्मके उदयसे होती है वह निंद्रा दर्शनावरण आदि कर्मभेद कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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