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________________ याप्तम अध्याय [११५ भावार्थ- हिंसादि पाप करनेसे इसलोक तथा परलोकमें अनेक आपत्तियां प्राप्त होती हैं और निंदा भी होती है, इसलिये इनको छोड़ना ही अच्छा है ॥९॥ दुःखमेव वा ॥१०॥ अर्थ- अथवा हिंसादि पाँच पाप दुःखरूप ही हैं ऐसा विचार करे। नोट- यहाँ कार्यमें कारणका उपचार समझना चाहिये, क्योंकि हिंसादि दुःखके कारण है, पर यहाँ उन्हे कार्य अर्थात् दुःखरूप वर्णन किया है ॥१०॥ निरन्तर चिन्तवन करने योग्य चार भावनाऐमैत्रीप्रमोदकारूण्यमाध्यस्थ्यानिच सत्त्वगुणा धिक क्लिश्यमानाऽविनयेषु ॥११॥ अर्थ- (च) और ( सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यामानाविनयेषु ) सत्व', गुणाधिक ' , विलश्यमान : और अविनय । जीवों में क्रमसे ( मैत्रीप्रमोदकारूण्यमाध्यस्थ्यानि) मैत्री प्रमोद कारूण्य और माध्यस्थ्य भावना भावे। मैत्री - दूसरोंको दुःख न हो ऐसे अभिप्रायको मैत्री भावना कहते हैं। प्रमोद- अधिक गुणोंके धारी जीवोंको देखकर सुख प्रसन्नता आदिसे प्रकट होनेवाली अन्तरङ्गकी भक्तिको प्रमोद कहते हैं। कारूण्य- दुःखी जीवोंको देखकर उनके उपकार करनेके भावोंको कारूण्यभाव कहते हैं। 1. प्राणीमात्र, 2. जो गुणो से अधिक हो, 3. दु:खी, 4. रोगी वगैरह, मिथ्याद्दष्टि उदण्डप्रकृतिके धारक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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