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________________ - - - पर अध्याय [ १०५ वध- आयु आदि प्राणोंका वियोग करना वध है। परिदेवन- संक्लेश परिणामोंका अवलम्बन कर इस तरह रोना कि सुननेवालेके हृदयमें दया उत्पन्न हो जावे सो परिदेवन है। नोट- यद्यपि शोक आदि दुःखके ही भेद हैं तथापि दुःखकी जातियाँ बतलानेके लिये सबका ग्रहण किया है ।। ११॥ सात वेदनीयका आस्त्रवभूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमितिसद्वेद्यस्य ॥१२॥ अर्थ- भूतव्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षांति और शौच तथा अर्हद्भक्ति आदि ये सातावेदनीयके आस्रव हैं। भूतव्रत्यनुकम्पाभूत-संसारके समस्त प्राणी और व्रती अणु व्रत या महाव्रतधारी जीवोंपर दया करना सो भूतव्रत्यनुकम्पा है। दान- निज और परके उपकार योग्य वस्तुके देनेको दान कहते सरागसंयमादि योग- पांच इन्द्रिय और मनके विषयोंसे विरक्त होने तथा छह कायके जीवोंकी हिंसा न करनेको संयम कहते है, और राग सहित संयमको सरागसंयम कहते हैं। नोट- यहाँ आदि शब्दसे संयमासंयम-(श्रावकके व्रत ) अकाम निर्जरा-( बन्दीखाने आदिमें संक्लेशतारहित भोगोपभोगक त्यागकरना)और बाल तप ( मिथ्या दर्शनसहित तरस्या करना)-का भी ग्रहण होता है। इन सबको अच्छी तरह धारण करना सरागसंयमादि योग कहलाता है। क्षांति- क्रोधादि कषायके अभावको क्षांति कहते हैं। शौच- लोभका त्याग करना शौच है। नोट- इति शब्दसे अर्हद्भक्ति, मुनियोंकी वैयावृत्ति आदिका ग्रहण करना चाहिये ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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