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________________ ssssssssssss888888888888888888806sessssssssssssssssssssssssss 88003888888888888888888888 सूक्तरत्नावली / 77 व्यसनेऽपि विमुचन्ति, स्वकीया नहि कर्हि चित्। शुष्के सरसि तत्रैव, म्लानाः पंकजपङ्क्तयः।। 302|| कभी-कभी दुख की परिस्थिति आने पर भी स्वजन लोग साथ नहीं छोड़ते है। तालाब के सूख जाने पर भी म्लान कमल की पत्तियाँ वहीं पर रहती हैं। तनवः पतिताः क्लेशे, त्यजन्ति चिरसौहृदम् । जन्मोहः क्षणात्यक्तो, यन्त्रान्तःपतितैस्तिलैः ।। 303 ।। __ क्लेश में पड़कर तुच्छ व्यक्ति लम्बे समय की मित्रता का त्याग कर देते है। यन्त्र के भीतर गिरकर तिल जन्म के साथी तेल का क्षण में त्याग कर देता है। अल्पैनियति नोपायै, नवीनाऽपि तमोमतिः। यत् सद्यस्कोऽपि किं नीली,-रागोऽदिरगमत्क्षितिम्?।।304|| नवीन होने पर भी तामस बुद्धि कतिपय उपायों द्वारा भी निकलती (बदलती) नहीं है। क्योंकि तात्कालिक नीलापन जल द्वारा क्या दूर किया जा सकता है? प्रचुरा प्रकृतिः प्रायः, प्रेक्ष्यते पापपूरिता। स्त्रीरूपो वाऽयं पुंरूपो, द्विधा दृष्टो नपुंसकः ।।305 ।। पापी व्यक्ति में प्रायः पापमय प्रकृति अधिकता में दिखाई देती है। स्त्रीरुप एवं पुरुषरुप दोनों प्रकार के रूप नपुंसक में दिखाई देते हैं। अपि स्वच्छात्मनां नीच,-गामितां हन्ति कोऽपि न। वारिता केन किं क्वाऽपि, सलिलानामधोगतिः? ||306 ।। - नीच मार्ग पर गई हुई निर्मल आत्माओं को कोई भी नहीं रोक सकता है। नदियों के अधोगति (नीचे) की ओर जाने पर क्या कहीं भी किसी के द्वारा रोका गया ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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