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________________ 76 / सूक्तरत्नावली आत्मसात्कुरुते सिद्धिं, सर्वतः सरलः पुमान् । कूपस्तम्मो न कि लेभे, यानपात्रे प्रधानताम्? ||297 || सरल पुरुष सभी स्थान पर सिद्धि को प्राप्त करते हैं। जहाज में लगा कूपस्तम्भ क्या प्रधानता को प्राप्त नहीं करता है ? सरलोऽपि मुखे दुष्ट,-स्त्रासकृज्जगतां मतः । कदाऽपि कोऽपिन क्वाऽपि, कुन्ततः कलयेदिमियम्? ||298।। दुष्ट व्यक्ति मुखमण्डल से सरल होने पर भी संतापकारी होते हैं। ऐसी जगत् की मान्यता है। क्या कोई भी व्यक्ति कभी भी, कहीं भी सीधे सरल दिखने वाले भाले (पखदार बाण) से भय को धारण नहीं करता है ? पापात्मानो निजाय, परेणामसुखेच्छवः । घृताल्लाभाय तत्स्वामी, गवामिच्छति तुच्छताम्।।299 ।। पापी व्यक्ति स्वयं के स्वार्थ के लिए दूसरों के असुख की इच्छा करता है। घृतलाभ के लिए गायों का स्वामी दूध की तुच्छ इच्छा करता है। उस गाय के लिए दूध बचाने की रञ्च मात्र भी इच्छा नहीं करता है। गते सारे मृदूनां स्या,-दवस्थास्पदमश्रियाम् । त्यक्तस्नेहास्तिलाः पश्य, खलतां प्रतिपेदिरे।।300।। स्थित-मधुरता के चले जाने पर वह स्थान अकल्याणकारी होता है। तैल का त्याग किये हुए तिल खलता को प्राप्त करते हैं। अल्पीयसाऽपि पापेन, विनश्येत् सुकृतं बहु। दुग्धं कांजिकलेशेन, प्रस्फुटेदतिबह्वपि।। 3011। अल्प पाप से भी बहुत पुण्यनष्ट हो जाता है। बहुत सारा दूध थोड़ी सी खटाई के द्वारा फट जाता है। 0000000000000000000000000000000000000000 85000000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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