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78 / सूक्तरत्नावली
दद्दशेऽपि व्यथायोगे, पुरस्तात् साहसी भवेत् । अगत्वाऽपि प्रहारेषु, पाण्योर्युगलमग्रतः।। 307 ।।
दुख का योग दिखाई देने पर भी साहसी व्यक्ति उसका पराक्रम से सामना करते हैं। प्रहार होने पर भी पीछे न जाकर भी भुजा-युगल सामने की ओर आ जाते हैं। अन्तःसारोऽप्यशुद्धात्मा, न क्वचिद्वल्लभो भवेत् । काम्यश्चाण्डालकूपः किं, भूयसाऽप्यम्भासा भृतः? |1308।।
भीतर से सत्त्व सम्पन्न होने पर भी अपवित्र आत्मा वाले व्यक्ति कभी भी किसी के प्रिय नहीं बन सकते हैं। क्या विपुल जल परिपूर्ण चाण्डालों का कूप (कूआ) किसी के द्वारा काम्य (अभिलाषित) हुआ है? सर्वे धर्माः पिधीयन्ते, दोषेणैकेन भूयसा। किं नाशं नेतरे वर्णाः, प्रयान्ति मलिनाम्बुना? ||309 ।।
प्रायः एक दोष के कारण सभी गुण ढंक जाते है। मलिनपानी द्वारा अन्य वर्ण मिलाने पर क्या उनका विनाश नहीं होता है?
दुःस्पर्शः पापवृत्तीनां, जडे स्यान्नेतरात्मनि। काकोत्सृष्टमपानीयं, पानीयं न पुनघृतम्।। 310।।
पाप वृत्तियों का दुस्स्पर्श मूर्ख व्यक्ति पर ही होता है। अन्य बुद्धिमान् व्यक्ति पर नहीं। कौआ त्याग किया हुआ और नहीं पीने योग्य पानी का पान करता है शुद्ध घी का नहीं।
न स्यान्मध्यस्थता शस्ता, कुस्थाननिर्मिता सती। यद् भवेत् प्राणवान् पण्ड,-स्तुन्दे मध्यस्थतां दधत्।।311।।
कुस्थान द्वारा निर्मित उदासीनता प्रशंसनीय नहीं होती है, जैसे नपुंसक व्यक्ति मुख पर रही हुई उदासीनता।
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