SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 58 / सूक्तरत्नावली . - नाऽतिशुद्धस्वरूपाणां, दुरिते जायते - रतिः। स्थीयते कलहंसैः किं, वर्षासु कलुषाम्मसि? ||208 ।। __ अत्यन्त पवित्र आत्मा वाले व्यक्तियों की पाप कर्म में रुचि नहीं होती है। क्या सुंदर हँसो द्वारा (राज हंसो द्वारा) कलुषित जल में निवास किया जाता है ? अर्थात् कदापि नहीं। खलानां न स्तुतिस्तादृक, प्रिया निन्दा च यादृशी। यथा शूकरो इच्छति, विष्ठा न तु मिष्ठानम्।। 209 ।। दुष्ट व्यक्तियों को पर प्रशंसा उतनी प्रिय नहीं होती जितनी पर निंदा प्रिय होती है। वराह (शूकर) को मिष्ठान का भोजन उतना प्रिय नहीं होता जितना गंदे स्थान मे रहने वाली विष्ठा प्रिय होती है। बहिस्तान्मजवस्तुच्छा, अन्तः कठिनवृत्तयः। किमीदृक् क्वाऽपि केनाऽपि, नालोकि बदरीफलम्? ||210 ।। तुच्छ व्यक्ति बाहर से मनोहर होते है और अन्दर से कठोर वृत्ति वाले होते है। क्या इस प्रकार का बोर का फल कहीं किसी के द्वारा नहीं देखा गया ? सृजन्ति तुच्छा अप्यर्ति, महतीं महतोऽत्यये । तिष्ठन्ति तरणेरस्ते, मुद्रितास्याः खगा अपि।।211|| महापुरुषों की ख्याति विनष्ट हो जाने पर तुच्छ आत्मा (दुष्टव्यक्ति) भी शोक या दुख प्रकट करते हैं। सूर्य के अस्त होने पर पक्षीगण भी मुँह बन्द कर लेते हैं। प्रभावान्निष्प्रभेणाऽपि, सङ्गतः श्रियमश्नुते। रविरुच्चैः पदं प्राप, गतोऽप्यंगारकौकसि।। 212|| प्रभावान् व्यक्ति निष्प्रभावान् व्यक्ति के संग होने पर भी कल्याण BB00000000000000RRBOOBOSSONSIBARB000RRRORISO9000006880 188000080PBR00068BSCRIB88888888888888888888888888888888888888888888-988800 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy