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________________ 4 / सूक्तरत्नावली स्वकथ्य वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है। उन अनन्तधर्मों को अभिव्यक्त करने के लिए अनन्त शब्दों की आवश्यकता होती है, किन्तु हमारे पास शब्द-कोष सीमित है। फिर भी संसार में कुछ व्यक्तित्व विलक्षण प्रतिभा से युक्त होते हैं, वे संकेतविधि के द्वारा अत्यन्त सीमित शब्दों में गहन एवं गम्भीर अर्थ को समेट लेते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ 'सूक्तरत्नावली' में भी ग्रन्थकार विजयसेनसूरीश्वर ने मात्र दो-दो पंक्ति के अनुष्ट्रप श्लोक के माध्यम से जीवन की सच्चाइयों को अभिव्यक्त किया है। प्राच्य विद्यापीठ में अध्ययन के दौरान मुझे इस महत्त्वपूर्ण कृति के अनुवाद का प्रशस्त अवसर प्राप्त हुआ। अनुवाद में संशोधन एवं सम्यक् अर्थसंयोजना का कार्य किया है, इसके सम्पादक विद्वद्मनीषी डॉ. सागरमल जैन ने, उनके प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ। इस अनुवाद के कार्य में प्रत्यक्ष परिश्रम भले ही मेरा दिखता हो, किन्तु इसके पीछे प्रेरणा और आशीर्वाद तो गुरुवर्य एवं गुरुणीवर्या का ही है। इस कृति के प्रकाशन के पुनीत अवसर पर उनका स्मरण करना मेरा अपना दायित्व है। सर्वप्रथम तो मैं कृत्य-कृत्य हूँ विश्वपूज्य आचार्य राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. की दिव्यकृपा की एवं अध्ययन हेतु सतत्प्रेरणा प्रदाता वर्तमान आचार्य देवेश श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. की अनुकम्पा और अनुशंसा की, जो इस प्रकाशन का सबसे महत्त्वपूर्ण सम्बल है। मैं आभारी हूँ, मातृहृदया पूज्या महाप्रभा श्रीजी म.सा. की, जोसंन्यासमार्ग में मेरे प्रेरणा-स्रोत रहे हैं। साथ ही मैं आभारी हूँ, पूज्या सरल स्वभाविनी मालवमणि सुसाध्वी श्री स्वयंप्रभा श्रीजी म.सा., पूज्या वात्सल्यप्रदात्री विद्वद्वर्या डॉ. प्रियदर्शना श्रीजी म.सा. पूज्या सरल हृदया कनकप्रभाश्रीजी म.सा., स्नेह सरिता विद्वद्वर्या डॉ. सुदर्शनाश्रीजी म.सा., जीवन निर्मात्री भगिनीवर्या श्री प्रीतिदर्शनाश्रीजी म.सा. जिनकी प्रेरणा मेरी संयम यात्रा एवं विद्योपासना का आधार है। मैं इन सभी के प्रति सादर सविनय नतमस्तक हूँ। अध्ययनरता श्रुतिदर्शनाश्रीजी का आत्मीय सहयोग इस अनुवाद के साथ जुड़ा हुआ है। अक्षर संयोजन के लिये अनिल श्रीवास्तव एवं मुद्रण हेतु आकृति ऑफसेट के प्रति भी हमारी सद्भावनाएँ। मेरी कृति को मूर्तरूप प्रदान करने वाले अर्थ सहयोगी श्री त्रिस्तुतिक जैन श्री संघ, नापरा, उज्जैन (म.प्र.) एवं शा. माँगीलाल जी समस्त रतनपुरा बोहरा परिवार बेटा पोता-शा. पेराजमलजी प्रताप जी, मोदरा (राज.) हाल निवासी-गुन्टूर (आ.प्र.) को भी साधुवाद। -रुचिदर्शनाश्री 0000000000000000000000000000686808 80000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००0000000000000000000 0000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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