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सूक्तरत्नावली /5
भूमिका
जैन-साधना का लक्ष्य समभाव (सामायिक) की उपलब्धि है और समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय और सत्साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। सत्साहित्य का स्वाध्याय मनुष्य का ऐसा मित्र है, जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों स्थितियों में उसका साथ निभाता है और उसका मार्गदर्शन कर उसके मानसिक विक्षोभों एवं तनावों को समाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय सेव्यक्तिको सदैव ही आत्मतोष
और आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होती है; मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शान्ति का अमोघ उपाय है। स्वाध्यायका महत्त्व
सत्साहित्य के स्वाध्याय का महत्त्व अतिप्राचीन काल से ही स्वीकृत रहा है। औपनिषदिक चिन्तन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके गुरु के आश्रम से विदाई लेता था तो उसे दी जाने वाली अन्तिम शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी'स्वाध्यायान् मा प्रमद:' अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु हैजो गुरुकी अनुपस्थिति में भी गुरुका कार्य करती है। स्वाध्यायसे हम कोईन-कोई मार्गदर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गाँधी कहा करते थे- 'जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे सामने कोई जटिल समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रूप से प्रतीत नहीं होता है, मैं गीता-माता की गोद में चला जाता हूँ, वहाँ मुझे कोई-न-कोई समाधान अवश्य मिल जाता है।' यह सत्य है कि व्यक्ति कितने ही तनाव में क्यों न हो अगर वह ईमानदारी से सद्-ग्रन्थों का स्वाध्याय करता है, तो उसे अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग अवश्य ही दिखाई देता है।
जैन परम्परा में जिसे मुक्ति कहा गया है, वह वस्तुत: राग-द्वेष से मुक्ति है, मानसिक तनावों से मुक्ति है, ऐसी मुक्ति के लिए पूर्व कर्म-संस्कारों का निर्जरणया क्षय आवश्यक माना गया है। निर्जरा का अर्थ है-मानसिक ग्रन्थियों को जर्जरित करना अर्थात् मन की राग-द्वेष, अहङ्कार आदि की गाँठों को खोलना। इसे ग्रन्थि भेद करना भी कहते हैं। निर्जरा एक साधना है। वस्तुत: निर्जरा तपकी ही साधना से होती है। जैन परम्परा में तप-साधना के जो 12 भेद माने गये हैं; उनमें स्वाध्याय की गणना आन्तरिक तप के अन्तर्गत आती है। इस प्रकार स्वाध्याय मुक्ति का मार्ग है। जैन-साधना का एक आवश्यक अंग है।
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