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50 / सूक्तरत्नावली
संग्रहः श्रियमिच्छन्दिः कर्तव्योऽपि लघीयसाम् । संगृहीतं दृशोरासीत्, कज्जलं किं न कान्तये?||16911 ____ बहुत छोटे व्यक्तियों का कल्याण की इच्छा से किया गया संग्रह योग्य है। क्या दृष्टि में संग्रहीत काजल कान्ति के लिए नहीं होता है? सत्कृतोऽपि त्यजत्येव, न खलः खलतां खलु । कटुतां नाऽत्यजन्निम्बः, पायितः ससितं पयः ।। 170||
उपकार करने पर भी दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता है। दूध पिलाया हुआ नीम अपनी कटुता को नहीं छोड़ता है। वंश्येषु विनयिष्वेवा,-ऽधिरोहन्ति गुणा: सखे ! नतिमत्येव कोदण्डे, दृष्टं यद् गुणगौरवम् ||1711।
हे सखे ! कुलीन व्यक्तियों के विनम्र होने पर ही उनकी श्रेष्ठता उन्नत होती है। धनुष के झुकने पर ही डोरी गौरव को प्राप्त करती
वासस्थानविनाशाय, भवन्ति सु कृतीतराः । काष्ठकीटा न किं दृष्टा, ईदृगदुष्टविचेष्टिताः? ||172||
पापी व्यक्ति स्वयं के स्थान का नाश करने वाला होता है। क्या काष्ठ के कीड़े को नहीं देखा जो इस तरह की दुष्टचेष्टा करता है ?
पतितस्य निजस्याऽपि, न संगो गुणिनां मतः।
यत्संस्तुतावपि त्यक्तौ, हारेण युवतीकुचौ। 1173 || ___गुणी जनों के लिए अपने पतित (दुराचारी) स्वजनों का सम्पर्क भी अच्छा नहीं होता है। युवतीजन के स्तन की शोभा बढ़ाने का हेतु हुए भी (अलंकृत करने के पश्चात्) हार कुचौ को अस्त व्यस्त कर देते
उठा
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