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सूक्तरत्नावली / 49 है। छोटा सा तृण भी आँखों के अन्दर गिरने पर क्या आँसू नही गिरता
महात्मनां विपत्तौ स्या,-दुत्साह: श्यामलात्मनाम्। किमस्तसमये भानो,-र्न च्छाया वृद्धिभागभूत् ?||164||
महान् व्यक्तियों की विपत्ति के समय कलुषित मन वाले व्यक्तियों का मन उत्साहित हो जाता है। क्या अस्तकाल में सूर्य की छाया वृद्धिगत नहीं होती है ? अर्थात् छाया बढ़ जाती है। श्यामात्मानः समायान्ति, न्यत्कृता अपि सत्वरम् । झटित्येव यदुद्यान्ति, मुण्डिता अपि मूर्धजाः।। 165 ||
कलुषित व्यक्ति तिरस्कृत होने पर भी शीघ्रता से वापस (समीप) आ जाता है। बाल मुण्डित होने पर भी शीघ्र ही उत्पन्न हो जाते हैं। महानास्तां तदभ्यर्ण,-भाजोऽपि दृग्गरीयसी। कुंजराः कीटिकाकल्पाः, शैलमूर्धनि तस्थुषाम् ।। 166 ।।
महान व्यक्ति के पास बैठने वाले व्यक्ति की दृष्टि भी दीर्घ हो जाती है। पर्वत की चोटी पर बैठे हाथी भी कीट (कीड़े) दिखाई देते है।
लघोस्तेजस्विताऽपि स्या,-न्महतोऽपि लघुत्वकृत्।। संक्रान्तो मुकुरक्रोडे, भूधरः कर्करायते।। 167 ।।
लघु व्यक्ति महान् व्यक्ति की महानता को भी लघु बना देता है। विशाल पर्वत दर्पण में छोटे से पत्थर सा प्रतिबिम्बित होता है।
लघीयसां गतिर्यत्र, न तत्र महतां गतिः । पिपीलिकानामारोहो, यद् गजानामगोचरः।।168।।
जहाँ लघु व्यक्तियों की गति होती है वहाँ महान् व्यक्तियों की गति नहीं होती है। जहाँ चींटियों का चढ़ना होता है वहाँ हाथी नहीं चढ़ते हैं।
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