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________________ 1888888 mom सूक्तरत्नावली / 51 एकेन बहु दोषोऽपि, गुणेन बलिना प्रियः। . हारः सच्छिद्रमुक्ताढ्यो, मान्यो नैकगुणोऽपि किम्? ||174।। __बहुत दोष होने पर भी एक गुण प्रबल होने से वह प्रिय होता है। क्या छिद्र युक्त मोतियों का हार एक ही गुण (डोरा) के कारण मान्य नहीं होता ? लघूनपि गुरूकुयुः, स्वमहोभिर्महस्विनः। पश्य दीपप्रभादीप्तं, लघु रूपं महत्तरम् ।। 175|| महान् व्यक्ति अपनी प्रभा द्वारा लघु को भी गुरु कर देते हैं। दीपक की प्रभा छोटी होते हुए भी प्रकाश का विस्तार करती है। सेवा तिष्ठतु शिष्टाना,-मपि दर्शनमर्थकृत्। न स्यात् संपत्तये केषां, प्रेक्षणं चाषपक्षिणाम्? ||176।। ___ सज्जन व्यक्तियों की सेवा तो एक ओर रही, उनका दर्शन भी कल्याण करने वाला होता है। क्या चाष पक्षियों का दर्शन कल्याण के लिए नहीं होता है ? अचेतनोऽप्यपुण्यात्मा, सेवितोऽनर्थसार्थकृत् । न च्छायाऽप्युपविष्टानां, किं कलेः कलिकारिणी||177 || पापी व्यक्ति अज्ञानी होने पर भी अनर्थों के लिए सेवित होता है। क्या बहड़ वृक्ष की छाया उसमें बैठे व्यक्तियों के झगड़े का कारण नहीं होती है ? यत्र तत्र समेतः स्याद,-पुण्यः पदमापदाम् । प्राप्तो वहति पानीयं, यत्र तत्राऽपि कासरः ।। 178 ।। जहाँ अपुण्यवान् व्यक्ति के कदम पड़ते है वहाँ पर विपत्ति चली आती है। जहाँ महिष (भैसा) होता है वहाँ पंकिल पानी (कीचड़युक्त) ही प्राप्त होता है। 500000000000000000000000000000000000000006086ORSwap0803066086868500568800388888888888886880038800000000000006888888888880658000000000000000000000s Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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