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________________ 125089899999885338888888999999998 8 88888888888888888888888888888888888888888888 sonmona सूक्तरत्नावली / 43 यत्रास्ते ननु तेजस्वी, स्थानं तदपि मान्यते । अरणौ काष्ठमात्रेऽपि, लोकानां किमु नादरः? ||133 || जहाँ तेजस्वी व्यक्ति बैठते है, वह स्थान भी निश्चित मान्य होता है। क्या शमी का टुकड़ा काष्ठ होने पर भी लोक में आदर नहीं पाता? अर्थात् सम्मान प्राप्त करता है। तुच्छात्मोज्झति दृढतां, सद्यः संगे प्रभामृताम् । लाक्षा साक्षाज्जलं जज्ञे, संपर्केण हविर्मुजः? ||134।। प्रकाशवान के संग होने पर तुच्छ व्यक्ति दृढता को शीघ्रता से छोड़ देता है। अग्नि के संपर्क से पानी भी लाल दिखाई देता है। निःशक्तयोऽपि संयुक्ता, भवन्ति बलहेतवः । गुडकाष्ठपयोयोगे, मद्यशक्तिर्महीयसी।। 135 ।। दो निर्बल व्यक्ति भी संयुक्त होने पर बलवान् हो जाते हैं गुड़, काष्ठ एवं जल के योग से शराब की शक्ति बढ़ जाती है। किं करोति कठोरोऽपि, संगते महसां निधौ ?। गाहयामास लोहोऽपि, द्रवतां मिलितेऽनले।। 136।। प्रकाशवान व्यक्ति के साथ कठोर व्यक्ति भी क्या कर सकता है? जैसे अग्नि के मिलने पर लोहा भी द्रवता को प्राप्त हुआ। तेजस्तिष्ठतु संगोऽपि, तद्वतां बीजमर्चिषाम् । पश्य पावकसंयोगा,-ज्जलमप्यतिदाहकृत्।। 137 ।। __ प्रकाश के स्रोत के संग बैठा व्यक्ति भी उसके समान प्रकाशित हो जाता है। जल शीतल होने पर भी अग्नि के संयोग से दाहक बन जाता है। गता यत्राऽपि तत्रापि, वाग्मिनो विश्ववल्लभाः। पुरग्रामवनोद्याने, कोकिलाः श्रुतिशर्मदाः।। 138।। BB008888888888888888888888USHB OBBBBBBBBBowww8888888 888888888888888888888888888888888888888888009868688003060 vecomasswoodwesowठळ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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