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सूक्तरत्नावली / 41 सेवा स्वार्थाय नीचाना,-मुच्चैरौचित्यमञ्चति । वपुःपुष्टी(ष्टि)कृते बाल्ये, द्विकसेवी न किं पिकः? ||123 ।।
श्रेष्ठ व्यक्तियों के द्वारा स्वार्थ के लिए नीच व्यक्तियों की भी सेवा एवं सम्मान किया जाता है। क्या बाल्यावस्था में शरीर की पुष्टि के लिए कोयल कौए की सेवा नहीं करती है ?
न विमुच्चति वृद्धोऽपि, पैशुन्यं पिशुनः खलु। अश्नात्येव पुरीषं यत्, प्रवया अपि वायसः।। 124||
मिथ्यानिन्दा करने वाला व्यक्ति वृद्ध होने पर भी निन्दा करना नहीं छोड़ता है। कौआ वृद्ध होने पर भी गंदगी ही खाता है।
नाऽमानमानमाप्नोति, वसञ् श्वशुरवेश्मनि। इन्द्रायादात्सुधामब्धि,-र्जामात्रे वाऽच्युताय न।। 125||
श्वसुर के घर में बसे जमाई का मान भी अपमान रुप हो जाता है। समुद्र ने इन्द्र को अमृत प्रदान कर दिया पर अपने जामाता विष्णु को अमृत नहीं दिया। सखे ! वित्तवतां प्रायो, दुर्मोचो नीचसंस्तवः। पद्म मधुपसंपर्क, श्रीवेश्माऽपि जहौ न यत्।। 126 ||
हे सखे ! प्रायः नीच व्यक्ति धनवान् लोगों की प्रशंसा मुश्किल से छोड़ता है। जैसे लक्ष्मी के स्थान कमल के संपर्क को भ्रमर नहीं छोड़ता है। विस्तारं व्रजति स्नेहः स्वल्पोऽपि स्वच्छचेतसि। व्यानशे तैललेशोऽपि, सरः सर्वमपि क्षणात्।। 127 ।।
निर्मल मन वाले महापुरुषों के हृदय में दूसरों के प्रति निश्छल स्वल्प प्रेम क्रमशः विस्तार को प्राप्त हो जाता है। तैल के बिंदु मात्र से सम्पूर्ण तालाब क्षणमात्र मे आक्रान्त हो जाता है।
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