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सूक्तरत्नावली / 37 लघीयानपि तोषाय, तेजोभाजोऽपि जातुचित् । किं दीप्तये दृशोरासी,-द्दीपधूमोऽपि नाञ्जनम्? 11103 ||
कभी छोटा व्यक्ति भी तेजस्वी व्यक्ति के संतोष के लिए होता है क्या जलते हुए दीपक के बूंए से बना अंजन आँखो के संतोष के लिए नहीं होता है ? अर्थात् होता है।
प्रथिता याति न ख्यातिः, सन्तु मा सन्तु वा गुणाः। यन्नारी नष्टनेत्राऽपि, प्रोच्यते चारुलोचना।। 10411
गुणों के नहीं रहने पर भी फैली हुई ख्याति नहीं जाती है। जैसे सुंदर नयन वाली स्त्री के नयन नष्ट हो जाने पर भी वह सुंदर नयन वाली स्त्री कही जाती है। लघीयस्त्वेन तेजस्वी, नावज्ञामात्रमर्हति। क्वान्धकारं भृतागारं, क्व दीपकलिका किल? ||105 ।। ___ छोटा होने के कारण तेजस्वी व्यक्ति की अवज्ञा करना उचित नहीं है कहाँ अंधकार से पूर्ण घर और कहाँ दीपक की ज्योति अर्थात् छोटा सा दीपक भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। अरंगोऽपि विशुद्धात्मा, परेषां रञ्जयेन्मनः। नागवल्लीगतश्चूर्णः, श्वेतोऽपि मुखरङ्गकृत्।। 106 ।।
विशुद्ध आत्मा निरागी होते हुए भी दूसरे के मन को रंग देता है। पान की वेला का चूर्ण श्वेत होने पर मुख को लाल कर देता है। रागी रागिणि नीरागो, नीरागे श्रियमश्नुते । ताम्बूलमास्ये रक्तौष्ठे, श्यामतारेऽम्बकेऽजनम् ।। 107 ||
रागी व्यक्ति रागणी को प्राप्त करते हैं और निरागी व्यक्ति वैराग्य अर्थात् कल्याण को प्राप्त करते हैं। जैसे ताम्बूल से मुख और औष्ठ
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