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________________ 36 / सूक्तरत्नावली से मधुर स्वर निकलता है। इस प्रकार मृदंग के अन्दर रहे हुए रहस्य - को देखो! अचेतनेन यत्कार्य, जातु चिन्ने तरैश्च तत् । आप्यते यत् कपर्दैन, न तत् कीटककोटिभिः ।। 99 ।। कभी किसी समय जो अज्ञानि व्यक्ति के द्वारा होता है वह कार्य ज्ञानी और अन्य जनों के द्वारा भी नहीं होता है। जो एक कोड़ी दे सकती है वह करोड़ों कीड़े भी नहीं दे सकते हैं। प्राप्य किंचित् परान्नीचः, स्यात् परोपप्लवप्रदः। लब्ध्वा रविरुचां लेशं, भृशं यदुस्सहं रजः ।। 10011 अन्य लोगों से थोड़ा सम्मान प्राप्त किया हुआ नीच व्यक्ति दूसरे लोगों के लिए कष्टपद्र होता है। सूर्य का थोड़ा प्रकाश पाकर धूल बहुत दुस्सह (गर्म) हो जाती है। रागिभिर्लभ्यते भूरि-रभिभूतिश्च ने तरैः। यत् कुसुम्भमरः पादै, हन्यते न दृषद्गणः।। 101 ।। विषयों के प्रति राग रखने वाले व्यक्तियों को पराभव अथवा तिरस्कार प्राप्त होता है अन्य (सज्जन व्यक्ति) को नहीं। क्योंकि लालिमा (रागिता) प्राप्त गुलाल का ढेर पौरों द्वारा ताड़ित किया जाता है। पत्थर के कणों का समूह पददलित नहीं किया जा सकता क्योंकि वे राग विहीन होते हैं। . पुण्यवान् पापवांश्चापि, ख्यातिमन्तावुभावपि। गजारूढं खरारूढं, चाऽपि पश्यन्ति विस्मयात्।।102|| पुण्यवान् भी ख्यातिवाला होता है और पापी व्यक्ति भी जैसे हाथी पर बैठा व्यक्ति एवं गधे पर बैठा व्यक्ति दोनों ही आश्चर्य से देखे जाते हैं। Boooomnaamana w ठठला 860000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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