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________________ सूक्तरत्नावली / 17 अन्तःकरण में आश्चर्य कर विस्तार नहीं करती हैं। जैसे चन्द्रमाँ के बिना रात्रि शोभा नही देती है । यैर्भास्करकरैरिव । दृश्यते सदसद्वस्तु दृष्टान्तास्तुष्टये सन्तु काव्यालंकारकारिणः ।। 5 ।। " जिस प्रकार सूर्य की किरणों द्वारा सत् एवं असत् वस्तु भिन्न-भिन्न दिखलायी देती है, उसी प्रकार अलंकारिकों के दृष्टान्त सत् एवं असत् वस्तु का दर्शन अलग-अलग कर देते हैं। अतश्चित्तचमत्कार, - मकराकरचन्दि काम् । भावयुक्तेषु सूक्तेषु ब्रूमो दृष्टान्तपद्धतिम् ।। 6 ।। · . Jain Education International अतः चित्त को चमत्कृत करने वाली समुद्र मे चन्द्रमाँ के समान भाव से युक्त सूक्तियों में दृष्टान्त पद्धति को हम कहते हैं । भवेत्तुं गात्मनां संपद्, विपद्यपि पटीयसी । पत्रपाते पलाशानां किं न स्यात् कुसुमोद्गमः ? ।।7।। विपत्ति में भी उच्चआत्मा की संपत् (बुद्धि - रुपी धन) अत्यन्त पटु (चातुर्यपूर्ण) हो जाती है। क्या पलाश ( खाँखरा का वृक्ष) के पत्ते गिर जाने पर भी उसमें फूल नहीं खिलते है ? अर्थात् उस स्थिति में भी उसमें पुष्पोद्गम हो जाता है। गुणदोषकृते स्थाना, -स्थाने तेजस्विता स्थिता । दर्पणे मुखवीक्षायै, खंगे प्राणप्रणाशकृत् ।। 8 ।। बुरे स्थान के प्रभाव से महान व्यक्तियों के गुण भी दोष बन जाते हैं जैसे पक्षी दर्पण में मुख देखकर अपने प्राणों का नाश कर लेता है। पदे पदे ऽधिगम्यन्ते, पापभाजो न चेतरे । भूयांसो वायसाः सन्ति, स्तोका यच्चाषपक्षिणः । । १ । । पापी व्यक्ति तो पग-पग पर मिल जाते हैं, सज्जन नहीं जैसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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