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________________ 18 / सूक्तरत्नावली कौए तो बहुत होते है। किंतु चाषपक्षी थोड़े होते हैं। अपि तेजस्विनं दौःस्थ्ये, त्यजन्ति निजका अपि । न भानुर्भानुभिर्मुक्तः, किमस्तसमये सखे ! ।। 10 ।। तेजस्वी व्यक्ति को भी दुर्भाग्य में उसके स्वजन त्याग देते है । हे सखि ! सूर्य भी अस्त समय में क्या अपनी किरणों से मुक्त नही होता है ? ज्योतिष्मानपि सच्छिदैः संगतोऽनर्थ हेतवे । मंचकान्तरिता दीप, - प्रभा पुण्यप्रणाशिनी । । 11 ।। प्रकाशवान व्यक्ति भी दोषयुक्त व्यक्तियों के संसर्गवश अनर्थ का कारण बन जाता है। शय्या के नीचे गई हुई दीपक की ज्योति पुण्य का नाश करने वाली हो जाती है। मलिनोऽपि श्रियं याति महस्विमिलनादलम् । सम्पर्कान्नान्जनं भाति, किं दृशां हरिणीदृशाम् ।। 12 ।। . महस्वी व्यक्ति के मिलने से मलिन व्यक्ति भी कल्याण को प्राप्त करता है। क्या काजल के सम्पर्क से दृष्टि मृगनयनी की सुंदरता नहीं प्राप्त करती है ? पराभूतोऽपि पुण्यात्मा न स्वभावं विमुंचति । तोयमुष्णीकृतं कामं, शीततां पुनरेति यत् । । 13 । । असफल होने पर भी पुण्यात्मा व्यक्ति अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है । जैसे अत्यन्त गर्म किया गया पानी फिर से शीतलता को प्राप्त हो जाता है। पापभाजामभूतयः । महोत्सवे च जायन्ते नापत्राः किं वसन्तेऽपि, करीरतरवोऽभवन् ? ।। 14 ।। महोत्सव होने पर भी पापी व्यक्ति अप्रसन्न रहते हैं । जैसे वसंत Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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