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________________ 106 / सूक्तरत्नावली - न संस्तवेऽपि पुण्यानां, पापधीर्याति पापिनाम्। नास्ता मधुपता भृङ्गः, संगे सुमनसामपि।। 444|| पुण्यात्मा व्यक्तियों की प्रशंसा करने पर भी पापी व्यक्तियों की पाप बुद्धि नहीं जाती है। फूलों का संसर्ग करने वाले भँवरों की रसलोलुपता समाप्त न हो पायी। व्यापारो यादृशो यस्य, तस्मात्तादृक् फलागमः । न स्नेहनाशिना चक्रे, किं दीपेनासितं कुलम्? ||445 ।। जिस व्यक्ति का जैसा व्यवहार होगा उसको उसी प्रकार का परिणाम प्राप्त होता है। तैल के नाश हुए दीपक द्वारा क्या कुल कलंकित नहीं किया गया ? खलानां खलता याति, स (न) सत्संगसृजामपि। सर्वज्ञसंगिभिस्त्यक्ता, न द्विजिव्है ढिजिव्हता।। 446 ।। सज्जन व्यक्तियों का संग होने पर भी दुष्ट व्यक्तियों की दुष्टता नहीं जाती है। चन्दन वृक्ष का संग करने पर भी क्या सर्प अपनी गरलता को नही त्यांगता है? सार्ध हि धार्मिकैरेव, विरोधः पापिनां महान्। विश्वेऽस्मिन् वहते वैरं, कलावत्येव यत्तमः ।। 447 ।। धार्मिक व्यक्तियों के साथ पापात्मा लोगों का महान् विरोध बन जाता है। इस संसार में अन्धकार चन्द्रमाँ के प्रति वैर सदैव बनाए हुए क्वचिद्वस्तुविशेषे स्यात्, संगमो गुणदोषयोः। सति दोषाकरत्वेऽपि, कलावत्त्वं न किं विधौ? ||448 ।। कभी-कभी विशिष्ट वस्तु में गुण में दोष का संगम देखा जाता है। क्या दोषा (रात्रि) करने वाले चन्द्रमाँ में कलातत्त्व (कलावान् होना) 88888880000000000000ठा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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