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________________ सूक्तरत्नावली / 105 गोपेन्द्र (श्री.ष्ण) रातदिन रसाधिप (जल के निधान) समुद्र का सेवन करते हैं। महत्यपि भवेत्प्रायः, कुसंगाद्दोषसंगमः । कलावत्यपि जातोऽयं, कलंको विषवासतः ।। 440|| प्रायः कुसंग-वश महापुरुषों मे भी दोष आ जाते हैं। विष (गरल, जहर) के सम्पर्क-वश चन्द्रमा मे कलंक लग गया। परित्यागः कुसंगस्य, कृतिनामपि दुष्करः। अस्ति स्थितिः सुरागारे, यतः सुमनसामपि।। 441|| महान् अथवा पुण्यात्मा व्यक्तियों के लिए भी कुसंग का परित्याग कभी-कभी कठिन हो जाता है। शोभनमन वाले देवों की स्थिति (निवास) सुरआगारे (स्वर्ग) मे है। फूलों की भी स्थिति (रहना) सुराआगारे (मदिरालय) मे रहती है। निष्कृपा अपि भवति वल्लभा वित्तशालिनः। जनार्दनोऽपि यज्जज्ञे, श्रीपतिर्जगतां प्रियः।। 442|| करुणा रहित धन सम्पन्न व्यक्ति भी लोगों मे प्रिय हो जाते हैं। जनार्दन (अर्थात् दुष्ट जनों का विनाश करने वाले) भी श्री पति (लक्ष्मी के स्वामी) के रूप में संसार के प्रिय बन गये। अपि प्र वयसां पुंसां, दुर्धरा ब ह्यचारिता। सरोजजन्मा किं नासीत्, स्थविरोऽपि प्रजापति? ||443|| प्रौढ़ता प्राप्त व्यक्तियों के लिए भी बह्मचर्य व्रत का पालन करना दुःसह हो जाता है। क्या वृद्ध ब्रह्मा जी कमल से उत्पन्न होने पर भी अपने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सके? अर्थात् नहीं कर पाये। 3888888888888888888888NOROSBHB888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888SSSSS5558885608686866600306088688003808888888888888 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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