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________________ 104 / सूक्तरत्नावली नीचो मुचति नीचत्वं, वसन्नान्तः सतामपि। कलावन्मण्डपे तिष्ठन्, मृगो नौज्झत् कुरंगताम्।।435 ।। सज्जनों के समीप रहे हुए नीच व्यक्ति भी अपनी नीचता को नहीं छोड़ते है। कलावतमण्डप में बैठे हुए मृग अपनी चंचलता को नहीं त्यागते हैं। किं करोति सतां संगः, पातधर्माधिकारिणाम् ?| पश्य मुक्ताश्रिताः कान्ता,-कुचाः श्वेतेतराननाः।।436 || अधम व्यक्तियों को सज्जन पुरुषों की संगति का भी कोई भी लाभ नहीं होता है देखिये! मोतियों की माला का आश्रय लेने वाले कामिनी कुच अग्रभाग मे कालिमा को ही धारण करते है। धत्ते चित्ते न संवासं, विवेको जड़वासिनाम् । भजत्यम्भोजिनी हंसः, पवित्रोऽपि रजस्वलाम् ।।437 || जड़तापूर्ण जीवधारी व्यक्तियों का विवेक उनके चित्त में निवास नहीं करता है। (वे विवेक हीन हो जाते है)। पवित्र होने पर भी हंस रजःस्वलाभ (पुष्पपरागपरिपूर्ण) कमलान्वित सरोवर का सेवन करता है। शुभाशुभविचारोऽपि, न भवेत्षण्ढचेतसि। जगत्प्रियमपीशानः, कलाकेलिमदीदहत्।। 438।। चरित्रहीन व्यक्ति के मन मे अच्छे अथवा बुरे विचारों का विवेक (ज्ञान) नहीं होता है। भगवान् शंकर ने संसार प्रिय कामदेव को भी भस्मसात् कर डाला। कुकुलं हन्ति सद्धद्धि, नानीतां शुभकर्मभिः । निषेवते दिवा नक्तं, गोपेन्द्रोऽपि रसाधिपम्।। 439 || अच्छे कर्म द्वारा अर्जित ऐश्वर्य बुरे कुल को नष्ट नहीं करता है। 88888888888888888888888888888888800070888888888888888888888888888888888888888888888888888888805888888888888888666388888888888880000000000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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