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________________ moon सूक्तरत्नावली / 103 प्रवृत्ति एवं कर्म से निवृत्ति मिल जाती है। समुद्र के पानी द्वारा अपने आप ही आना-जाना किया जाता है। महः करोति किं तुच्छे, वस्तुनि स्थितिमागतम् ?| तेजः स्तोमः किमाप्नोति, माहात्म्यं काचखण्डगम्? 143111 तुच्छ स्थिति को प्राप्त होने वाले व्यक्ति को तेज क्या कर सकता है ? अर्थात् कुछ नही। तेज का समूह क्या प्रस्तर खण्ड को मिल सकता है ? बिलकुल नहीं। प्रस्तर पर कभी भी तेज प्रतिबिम्बित नहीं हो सकता है। स्यात् परादाप्तवित्तोऽपि, महस्वी परकृत्यकृत् । न प्रदीपः प्रकाशायः, खेचराप्तप्रभोऽपि किम्? ||43211 दूसरों से धन प्राप्त व्यक्ति भी दूसरे के द्वारा किये गये कार्य की महस्विता प्राप्त कर सकता है। चन्द्रमाँ से कान्ति प्राप्त करने वाला दीपक क्या प्रकाश नहीं कर सकता है। मिलिता अपि निःसारा, प्रजायन्ते पुनर्द्विधा। जलैर्बद्धेषु यद्भूली,-मोदकेष्वेष विस्तरः ।। 433 || अनेक सारहीन वस्तुओं का संयोग पुनः दो भागों में विभक्त हो जाता है। जो धूलि जल के संयोग से गोलाकार बन जाती है वह कालान्तर में विभक्त हो जाती है। परन्तु वह संयोग लड्डू में विस्तार को पा लेता है। कुस्थाने संगतिनं, व्यसनव्यापृतात्मनाम् । मधुपानां रजःस्वेव, वसतिर्ददृशे न कैः?| 43411 विपत्ति मे फँसे हुए व्यक्तियो को निश्चय ही बुरे लोगों की संगति मिल जाती है। क्या भँवरों को रजः (पराग) के साथ वसना किनके द्वारा नहीं देखा गया है ? अर्थात् सभी जानते है कि भ्रमर पुष्प पराग में निमग्न रहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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