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________________ 102 / सूक्तरत्नावली wwwmom रागवान् व्यक्ति बाहर से तुच्छ एवं अन्दर से नीरस होते हैं। इस वर्ग मे गुंजे का फल किन लोगों द्वारा नहीं देखा गया? वाल्लभ्यं न च कृत्येन, नावाल्लभ्यमकृत्यतः। बहुकार्येऽपि सा प्रीति,-न लोहे या च कांचने। 1427 ।। - किसी वस्तु के लिये परिश्रम करने मात्र से उसके प्रति प्रीति उत्पन्न नहीं हो जाती है एवं परिश्रम न करने पर किसी के प्रति अप्रीति हो जाती है। जैसे लोहे की प्राप्ति हेतु बहुत अधिक श्रम किये जाने पर भी लोहे मे प्रीति नहीं होती एवं बिना श्रम किये भी स्वर्ण की उपलिब्ध होने पर उसके प्रति अप्रीति नहीं होती है। स्वच्छात्माऽपि स्वकैस्त्यक्तो, लाघवं द्रुतमश्नुते । न किं दध्नः पृथग्भूतं, नवनीतं तरत्यहो?|| 428 || .. निर्मल व्यक्ति होने पर भी यदि वह दरिद्रता को प्राप्त कर लेता है तो स्वजन उसका शीघ्र त्याग कर देते है। दही के लघुता प्राप्त करने पर अर्थात् मक्खन बन जाने पर क्या पृथक् नहीं कर दिया जाता? यादृशैः संगतिः संपद्,-दीयते तादृगेव तैः। दत्तः कज्जलदुग्धाम्यां, संगात् स्वस्वकुलेऽम्भस (?)|429 ।। जिस प्रकार की प्रवृत्तिवाले लोगों के साथ जिनका सम्बन्ध होता है उनको उसी प्रकार सम्पत्ति (ख्याति) दी जाती है। काजल तथा दूध के द्वारा अपने अपने सम्पर्क वश जल को सहवास-वश किया जाता है। काजल के साथ जल संयुक्त होकर कालिमा प्राप्त कर लेता है और दूध के साथ मिल जाने पर उसे धवलता प्राप्त हो जाती है। प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च, स्वयमेवाऽमलात्मनाम्। अब्धेरद्विरागमनं, यानं च कृतमात्मना।। 430 ।। पवित्र आत्मावाले व्यक्तियों को स्वयम् ही (अपने आप) कर्म में 00000000000000000000MBEDDED86386006 888888888888856960888888888888888888888888888888888888888888888860 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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