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________________ सूक्तरत्नावली / 107 परिलक्षित नहीं होता है ? अर्थात् वह दोषाकर होने पर भी कलावान् कहलाता है। धने सत्यपि तद्भोगो, नैवाभाग्यभृतां भवेत्। यद्दिगम्बर एवासी,-दीश्वरोऽपि महानटः।। 449 || अभाग्यशाली व्यक्ति धन होने पर भी उसका उपभोग नहीं कर सकते है। भगवान शंकर ईश्वर एव महानट होने पर भी दिगम्बर (दिशाए ही है अम्बर वस्त्र जिसका) ही बने रहें।। सखे ! दोषजुषां द्वेषः, स्वजनेऽपि प्रजायते। भक्तेऽप्यमावस्तोषस्य, न किं ज्वरभृताममूत? ||450।। ___ हे मित्र! दोषापन्न व्यक्तियों का अपने स्वजनों के प्रति द्वेष रहता है। क्या ज्वराक्रान्त को अपने आहार के प्रति अरुचि नहीं होती? अर्थात् वह रोगी व्यक्ति पथ्य के प्रति अरुचि प्रदर्शित करता है। भवेद्विद्यागमोऽवश्यं, छात्रे गुरोधियां निधेः । किं वाक्पतेर्टि यानां, न वैबुध्यमजायत?|| 451|| ज्ञानधारी गुरुजन का अपने शिष्य में ज्ञान का आगम होता है। क्या बृहस्पति के शिष्यों की विद्वत्ता नहीं हुई ? अर्थात् बृहस्पति के शिष्यों मे विद्यागम हो गया। धुवं स्यान्मानतुंगाना, विपत्तिरपि संपदे । करपीडावतोरासीत्, सौभाग्यं स्तनयोर्न किम्? ||452।। अति सम्मानित व्यक्तियों को भी निश्चित ही कभी-कभी विपत्ति का अनुभव करना पड़ता है। क्या किसी के द्वारा कर मर्दित होना स्तनों का सौभाग्य नहीं है ? मध्ये ध्वस्तधियामेव, स्थानं व्यसनवासिनाम् । क्रीडन्ति जलजातान्त,-मधुपाः प्रतिवासरम्।। 453।। 600000000 100000000000000000000000006660888 568005995 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001793
Book TitleSuktaratnavali
Original Sutra AuthorSensuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages132
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size7 MB
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