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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास आर्य यशोभद्र
आर्य यशोभद्र पंचम पट्टधर हुये। आपका जन्म तुंगीयान गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। २२ वर्ष की वय में आपने आर्य शय्यंभव के समीप प्रव्रज्या अंगीकार की। वी०नि० सं० ९८ में आप आचार्य पद पर आसीन हुये, २२ वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहे, १४ वर्ष सामान्य मुनि पर्याय में और ५० वर्ष तक युगप्रधान आचार्य के रूप में जिनशासन की सेवा की । ८६ वर्ष की कुल आयु में वी०नि० सं० १४८ में स्वर्गवासी हुये। आपके पश्चात् उनके शिष्य आर्य सम्भूतिविजय और आर्य भद्रबाहु क्रमश: पट्टधर हुये। आर्य सम्भूतिविजय
इनका विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता है। जो जानकारी उपलब्ध होती है वह इस प्रकार है- इनका जन्म वि० नि० सं० ६६ में हआ। ४२ वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहे। वी०नि० सं० १०८ में श्रमण दीक्षा अंगीकार की, ४० वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में और ८ वर्ष आचार्य पद पर रहे। कल्पसूत्र पट्टावली के अनुसार आपके १२ प्रमुख शिष्य और ७ शिष्यायें थीं जिनके नाम हैं- नंदनभद्र, उपनंदनभद्र, तिष्यभद्र, यशोभद्र, स्वप्नभद्र, मणिभद्र, पुण्यभद्र, स्थूलभद्र, ऋजुमति, जम्बू, दीर्घभद्र और पाण्डुभद्र आदि शिष्य तथा जक्खा, जक्खदिण्णा भूया, भूयदिण्णा, सेणा, वेणा और रेणा आदि शिष्यायें थी। ये सातों शिष्यायें स्थूलभद्र की बहनें थीं। आर्य भद्रबाहु
आर्य सम्भूतिविजय के पश्चात् आर्य भद्रबाहु सातवें पट्टधर बनें। ज्ञातव्य है कि आर्य भद्रबाह भी आर्य यशोभद्र के ही शिष्य थे और इस प्रकार सम्भूतिविजय और भद्रबाहु दोनों गुरुभाई थे। यद्यपि आर्य यशोभद्र ने स्वयं ही अपने दोनों शिष्यों को आचार्य पद के योग्य जानकर क्रमश: दोनों को ही पट्टधर घोषित कर दिया था। फिर भी जब तक आर्य सम्भूतिविजय जीवित रहे वे उनके सहयोगी के रूप में ही कार्य करते रहे। उनके स्वर्गवास के पश्चात् ही आर्य भद्रबाहु ने संघ की बागडोर अपने हाथ में लीं। आचार्य हस्तीमलजी का मानना है कि दो आचार्यों की नियुक्ति के आधार पर यह मान लेना कि उनमें किसी भी प्रकार का मतभेद था, संघ विभाजित हो गया थाएक निराधार कल्पना ही होगी। किन्तु हमारी दृष्टि में चाहे स्पष्ट मतभेद न हआ हो, फिर भी इतना तो निश्चित है कि आर्य सम्भूतिविजय की शिष्य परम्परा और आर्य भद्रबाहु की शिष्य परम्परा किसी न किसी रूप में पृथक्-पृथक् हो चुकी थी । चाहे स्थूलिभद्र आर्य भद्रबाहु के पश्चात् युगप्रधान आचार्य माने गये हों, किन्तु वे भद्रबाह के शिष्य न होकर सम्भूतिविजय के ही शिष्य थे। 'कल्पसूत्र' स्थविरावली से यह भी ज्ञात होता है कि आचार्य भद्रबाहु की शिष्य परम्परा और स्थूलिभद्र की शिष्य परम्परा पृथक् होकर विचरण कर रही थी। आचार्य भद्रबाहु के शिष्य गोदास से गोदास नामक स्वतंत्र गण प्रारम्भ हुआ है, जिससे चार शाखायें निकली।
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