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________________ आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक ७९ आचार्य हस्तीमलजी ने 'प्रबन्धकोश', 'प्रभावकचरित' आदि के आधार पर उनका जन्म स्थान प्रतिष्ठानपुर लिखा है। किन्तु यह वराहमिहिर के भाई परवर्ती भद्रबाहु से सम्बन्धित है। कल्पसूत्र स्थविरावली में उन्हें प्राच्य ( पाईणं) गोत्रीय कहा गया है। सामान्यतया विद्वानों ने प्राकृत पाइण्णं का अर्थ प्राचीन किया है किन्तु वह भ्रान्त है। वे वस्तुतः प्राच्य अर्थात् पौर्वात्य ब्राह्मण थे। हरिषेण के 'बृहत्कथाकोष' के अनुसार उनका जन्म पूर्वी भारत में स्थित बंगाल के पुण्डवर्धन राज्य के कोटिपुर में हुआ था। उनके पिता सोमशर्मा या सोमश्री थे। हमारी दृष्टि में हरिषेण का यह कथन अधिक प्रामाणिक है। वे ४५ वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रहे, उसके पश्चात् वी०नि० सं० १३९ में आर्य यशोभद्र के समीप दीक्षित हुये । उनका वास्तविक आचार्य काल वी०नि० सं० १५६ - १७० तक रहा। आर्य भद्रबाहु कठोर आचार के परिपालक, अंग और पूर्वों के उदभट विद्वान् तथा महान योगी थे। उनके जीवन का महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि आर्य भद्रबाहु को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं ने अपनी पट्ट परम्परा में सातवें या आठवें पट्टधर के रूप में स्थान दिया है । आर्य भद्रबाहु और आर्य भद्र नाम के अनेक आचार्य जैनसंघ में हुये हैं। उनके नाम साम्य होने के कारण परवर्ती ग्रन्थों में उनके जीवन चरित्र के सम्बन्ध में पर्याप्त भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गयी हैं । किन्तु यहाँ हम उस चर्चा में न जाकर इतना ही बताना चाहेंगे कि आर्य भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली व चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे। उन्होंने पूर्वों से उद्धरित करके छेदसूत्रों की रचना की थी। आर्य भद्रबाहु पाटलिपुत्र की वाचना में सम्मिलित नहीं हुये थे। उस समय वे नेपाल की तराई में ध्यान-साधना कर रहे थे। प्रथम तो उन्होंने स्थूलभद्र को पूर्वो की वाचना देने से इंकार कर दिया था, किन्तु बाद में संघ में आदेश को स्वीकार कर अपने ध्यान-साधना काल में स्थूलिभद्र को १० पूर्वों की अर्थसहित वाचना दी थी, कालान्तर में स्थूलिभद्र में द्वारा विद्या का दुष्प्रयोग करने पर आगे चार पूर्वों के मूलमात्र की वाचना इस शर्त के साथ दी थी कि आगे के इन चार पूर्वों की वाचना वे अन्य किसी को नहीं देंगे। आचार्य भद्रबाहु के चार प्रमुख शिष्य थे- स्थविर गोदास, स्थविर अग्निदत्त, स्थविर सोमदत्त और स्थविर यज्ञदत्त । स्थविर गोदास से गोदास गण प्रारम्भ हुआ । इस गोदास गण से चार शाखायें निकली १. ताम्रलिप्तिका २ कोटिवर्षका ३. पौण्ड्रवर्द्धनिका और ४. दासीकर्पाटिका । ये चारों शाखायें वंग प्रदेश के नगरों के आधार पर बनीं थी। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य भद्रबाहु की परम्परा मुख्य रूप से बंगाल, उड़ीसा में विचरण करती रही और वहीं से आन्ध्रप्रदेश के रास्ते तमिलनाडु होती हुई लंका तक गयी होगी। वडमाणु की खुदाई में गोदासगण का शिलालेख उपलब्ध हुआ है। इससे ऐसा लगता है कि भद्रबाहु की परम्परा दक्षिण-पूर्व भारत में ही विकसित होती रही। यही कारण है कि दक्षिण में विकसित दिगम्बर परम्परा उन्हें अपना पूर्व पुरुष स्वीकार करती है। For Private & Personal Use Only Jain Education International - www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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